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पडे ही है। बाहर से नहीं आते हैं। बाहर से लाए भी नहीं जाते। परंतु बाहरी साधन पुस्तक-शास्त्रादि उपकारी उपकरण है। उनके माध्यम से स्वाध्याय से तथाप्रकार के आवरण हटते हैं और ज्ञान प्रकट होता है।
___ मुख्य रूप से ज्ञान तो एक ही है - केवलज्ञान आत्मा में निहित ज्ञान के टुकडे या भेद नहीं है। वहां तो सिर्फ केवलज्ञान एक ही है। परंतु कर्मावरण के कारण पांच भेद पड गए हैं। कर्मावरण से आच्छन्न आत्मा के ज्ञान का अंश ही न्यूनाधिक मात्रा में प्रकट होता है अतः उस न्यूनाधिक मात्रा के भाग को मति-श्रुत आदि नाम की संज्ञा दी जाती है। इसीलिए केवलज्ञान प्रगट होने के बाद ये मति-श्रुतादि भेद नहीं रहते। सूर्योदय के बाद सूर्य के प्रकाश में तारे नहीं दिखाई देते हैं। तारों का प्रकाश सूर्य के तेज प्रकाश में मिल जाएगा। अतः अलग से दिखाई नहीं देगा, वैसे सर्व सम्पूर्ण अनंत वस्तु विषयक केवलज्ञान जो सर्व व्यापी है उसके प्रकट होने के बाद तारे की तरह टिमटिमाते मति श्रुतादि का अल्प (प्रकाश) ज्ञान कहां से दिखाई देगा? इसीलिए मति श्रुतादि चार ज्ञान कर्म के क्षयोपशम के आधार पर जन्य है जबकि केवलज्ञान सर्वथा क्षायिक भाव से जन्य है। जब कर्मावरण का अंश भी नहीं रहेगा सबका संपूर्ण नाश (क्षय) होगा तब केवलज्ञान प्रकट होगा। अतः आत्मा तो पूर्ण ज्ञानी मूल में ही है। अनंत ज्ञानी है। सूर्य तो महाप्रकाशी है। परंतु बादलों ने उसके प्रकाश को आच्छादित किया है वैसे ही आत्मा सूर्यवत् केवलज्ञान से अनंत (प्रकाशी) ज्ञानी है परंतु तथाप्रकार के ज्ञानावरणीयादि कर्मों से आच्छादित है -दबी पड़ी है - ढकी हुई है। इसीलिए आज आत्मा का ज्ञान प्रगट नहीं है। दबा हुआ है। परंतु ये ही ज्ञानावरणीयादि कर्मावरण हट जाय तो ज्ञानादि गुण अपने मूलस्वरूप में, पूर्ण स्वरूप में प्रकट हो जाएंगे। इतनी बात से यह निष्कर्ष तो अवश्य निकला कि - केवलज्ञानादि आत्मा में मूलभूत पड़ा ही है। निगोदावस्था से ही पड़ा है। वही सर्वज्ञावस्था मे सिध्दावस्था में आवरण रहित होकर पूर्ण रूप से प्रकट हो चूका है। इसीलिए निगोदावस्था में एकेन्द्रियावस्था में भी आत्मा ज्ञानादि गुण सम्पन्न ही है। कर्मावरण ज्यादा होने से वे ज्ञानादि व्यक्त प्रकट नहीं है, परंतु मूल सत्ता में पड़े जरूर है। अतः निगोदादि एवं पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय जीवों को भी ज्ञान जरूर है, और ज्ञानादि है इसीलिए जीव कहलाते हैं। ज्ञानादि नही होते तो जीव नहीं अजीव कहलाते । इसीलिए शास्त्र में कहा है कि - 'अक्खरस्स अणंतभागे सव्व जीवाणं णिच्चुग्घाडीयो होई'- अक्षर का अनंतवां भाग सभी जीवों में प्रकट है। एक समय में दो क्रिया नहीं होती : - . क्रिया तथाप्रकार के ज्ञानादि गुणों के आधार पर होती है तथाप्रकार की
कर्म की गति नयारी
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