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________________ रूचक प्रदेश हैं। वे नित्य स्थिर रूप से हैं। ये ही आत्मा के आठ मूलभूत गुणो के केन्द्र स्वरूप है। इन आठ रूचक प्रदेशों में ही आठ गुण मूलभूत अवस्था में पडे हुए हैं। इन आठ रुचक प्रदेशों पर कभी भी कर्म का आवरण नहीं आता है। अतः इनमें ज्ञानादि गुण प्रकट रहते हैं। परंतु असंख्य प्रदेशों में से ये सिर्फ आठ ही प्रदेश है। जो ज्ञानादि गुण असंख्य प्रदेशों में प्रसृत होकर रहते हैं उन्हें यदि घनीभूत होकर एक-एक प्रदेश में ही यदि रहना पडे तो उनका स्वरूप कितना सूक्ष्म हो जाएगा ? अतः अत्यन्त सूक्ष्म रूप में ही क्यों न हों परंतु ज्ञानादि गुण घनीभूत होकर रहे हुए हैं। मूल में स्थित है। बाहर से नहीं आते हैं। अतः ज्ञान अंतस्थ गुण है । जैसे सुदर्शन चूर्ण है उसे खूब उबालकर घन सत्व को एक गोली के रूप में दिया जाय तो चूर्ण की अपेक्षा सौगुना ज्यादा काम करता है। एक गोली में शक्ति सौगुनी बढ गई। जैसे दूध को उबालकर रबड़ी के रूप में घन किया तो दूध की अपेक्षा रबड़ी की शक्ति चौगुनी हो गई। उसे और भी ज्यादा उबाला जाय.. यहां तक कि जलाया जाय और फिर पेडा बनाया जाय तो दूध की अपेक्षा पेडे में उसकी शक्ति घनीभूत होकर रहेगी। वैसे ही आत्मा में ज्ञानादिगुण जो असंख्य प्रदेशों में व्याप्त है उन असंख्य प्रदेशों पर कार्मण वर्गणा छा गई हो और उनमें सिर्फ आठ रुचक प्रदेश ही अवशिष्ट रहे हो जहां कार्मण वर्गणा नहीं लगती वे प्रदेश स्वच्छ स्पष्ट हो तो उनमें घनीभूत होकर रहे हुए ज्ञानादि गुण मूलभूत सत्ता में अवश्य रहेंगे। एक एक प्रदेश में जो गुण रहेंगे वे घनीभूत शक्तिवाले होंगे। अनंत ब्रह्मांड में फैलने वाला समस्त लोकालोक व्यापी अनंत केवलज्ञान जो आत्मा के असंख्य प्रदेशों में प्रसृत होकर रहने वाला है वह कर्मावरण से दबकर सिर्फ रुचक प्रदेश में ही प्रगट है। वह कितना सूक्ष्म होकर ? कितना घनीभूत होकर पड़ा होगा ? अतः ज्ञान संपूर्ण रूप से है । सिर्फ कर्मावरण से दबकर सूक्ष्मरूप से घनीभूत होकर पड़ा रहता है, परंतु नष्ट नहीं होता है। कार्मण वर्गणा ज्यादा से ज्यादा आत्म गुणों को आच्छादित कर सकती है, ढंक सकती है परंतु आत्म गुणों का सर्वथा नाश नहीं कर सकती एक भी आत्म प्रदेश को नष्ट करके अलग नहीं कर सकती अतः ज्ञानादि गुण आत्मा में दबे हुए, ढके हुए जरूर पडे रहेंगे, अर्थात् ज्ञानादि गुणों की मूलभूत सत्ताअस्तित्व आत्म द्रव्य में अवश्य रहेगा। गुण बाहर से नहीं आते। आत्मा में ही है अतः आत्मा में से ही प्रकट होते हैं। ज्यों ज्यों कर्मावरण दूर हटते जाएंगे त्यों त्यों इन ज्ञानादि गुणों का प्रादुर्भाव होता जाएगा। प्रकट होते जाएंगे। ज्यों ज्यों पॉलिश होती है त्यों त्यों धातु में चमक बढती जाती है वैसे ही ज्यों ज्यों आत्मा के ज्ञानादि गुणों की उपासना धर्माचरण के रूप में की जाएगी त्यों त्यों कर्मावरण हटते जाएंगे। बादलों के हटने से जैसे सूर्य दिखाई देने लगता है वैसे ही कर्मावरण हटते- हटते ज्ञानादि गुणों का प्रादुर्भाव अनुभव में आता जाएगा। अतः ज्ञानादि गुण आत्मा में ही निहित है। मूल में १७५ कर्म की गति नयारी
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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