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________________ में अ-अक्षर निषेधात्मक नहीं है। अज्ञानी अर्थात् ज्ञानरहित ऐसा अर्थ नहीं हो सकता। परंतु अज्ञानी का 'अ' अक्षर-अल्पार्थ सूचक है। प्रमाण में ज्ञान की अल्पार्थता-न्यूनता बोधक है। अतः अज्ञानी का अर्थ होगा अल्पज्ञानी। अच्छा यदि अज्ञानी शब्द में 'अ' अक्षर का अर्थ निषेधार्थ लेंगे तो उसका अर्थ होगा उस विषय का अज्ञान । जिस संदर्भ की बात चल रही है उस संदर्भ में यदि किसी को अज्ञानी कहा भी है तो इसका अर्थ हआ वह व्यक्ति उस विषय में सर्वथा अन्जान है। कुछ भी नहीं जानता है। जैसे हम सर्जरी-शल्य चिकित्सा के विषय में अज्ञानी है, तो यहां संदर्भ सर्जरी का है। हम सर्जरी के विषय में सर्वथा अज्ञानी है, अर्थात सर्जरी विषयक क्षेत्र में सर्वथा ज्ञान रहित अज्ञानी है। परंतु सर्वथा सर्व ज्ञान रहित नहीं है। सर्जरी विषयक अज्ञान होते हुए भी अन्य कई विषयों का ज्ञान पड़ा है अतः हम ज्ञानी भी हैं। परंतु ज्ञानी होते हुए भी उन विषयों के संपूर्ण जानकार न होने के कारण ज्ञानी नहीं अज्ञानी-अर्थात् अल्पज्ञानी है। अतः संसार में जो भी कोई जीव है वह ज्ञानरहित नहीं है, ज्ञानयुक्त ही है। भले ही किसी में प्रमाण न्युनाधिकं हो परंतु ज्ञान होगा सही। शास्त्रकार महर्षि तो यहां तक कहते हैं कि-सव्व जीवाणं पियणं अक्खरस्स अणंतभागो णिच्चुग्घाडियओ, जई पुण सो वि आवरिजा तेण जीवो अजीवत्तं पावेज्जा । सुच्छ वि मेहसमुदए होति पभा चंद-सूराणं ।।७-८९।। अक्खरस्स अणंत भागो णिच्चुग्घाडीयो होई" ज्ञान का अनंतवां भाग सभी जीवों में प्रगट है। चाहे जीव निगोद की एकेन्द्रिय की अव्यक्त अवस्था में पड़ा हो तो भी उस अवस्था में निगोद के जीव. में भी ज्ञान प्रगट है।भले ही वह ज्ञान अनंतज्ञान का अनंतवां भाग ही क्यों न हो परंतु है सही। अतः पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, सूक्ष्मसाधारण वनस्पतिकाय (निगोद) आदि सभी जीवों में ज्ञान अवश्य पड़ा है। अतः जगत् में जो भी जीव है वह ज्ञानवान् अवश्य है। ज्ञान रहित नहीं है। यही सारांश है। आत्म निहीत ज्ञान का प्रमाण : . ज्ञान यह आत्मा का गुण है। आत्मा अरूपी-अनाकार द्रव्य है। ज्ञान आत्माश्रयी गुण है। द्रव्याश्रयी गुण द्रव्याकार रूप से रहता है। आत्मा के असंख्य प्रदेश है अतः ज्ञान भी आत्मा के असंख्य प्रदेशों में फैला हआ है। एक भी प्रदेश ऐसा नहीं है कि जिसमें ज्ञान न हो। यदि सभी तिल में तेल है तो एक तिल बिना तेल का कहां से होगा? सभी में है अतः सभी का सामूहिक प्रमाण दृष्टिगोचर होता है। प्रकाश सूर्य के साथ निश्चित रूप से है अतः भिन्न होने का प्रश्न ही नहीं खड़ा होता ज्ञान आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में प्रसृत है इन असंख्य प्रदेशों के केन्द्र में रहे हए आठ प्रदेश जो कर्म की गति नयारी (१७४)
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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