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________________ गुण है। आत्मा में ही छिपे हुए पडे हैं। उनके ऊपर से जैसे जैसे कर्म का आवरण हटता जाएगा वैसे वैसे उन ज्ञानादि गुणों का प्रादुर्भाव होता जाएगा। वे प्रकट होते जाएंगे। दिखाई देने लगेंगे। अतः ज्ञान आत्मा में ही है। बाहर से नहीं आता। बाहरी पुस्तकादि उपकरण तो अभिव्यंजक है। उत्तेजक है, द्योतक है। जैसे वस्तु तो है ही परंतु अंधेरे में दिखाई नहीं देती वहां दीपक दिखाने की क्रिया में सहायक बनता है। दीपक के प्रकाश ने अन्धेरे को हटा दिया, जो अन्धेरा वस्तु पर आवरण बनकर पड़ा था उसे प्रकाशने हटा दिया आंख और वस्तु के बीच का आवरण हट गया कि वस्तु स्पष्ट दिखाई देने लगी। उसी तरह आत्मा के ज्ञान गुण पर कर्म का आवरण पड़ा था। पुस्तक पढ़ना ज्ञान - ध्यान - स्वाध्याय आदि की प्रक्रिया से तथाप्रकार का आवरण जैसे जैसे हटता जाएगा वैसे वैसे ज्ञान प्रकट होता जाएगा। इसलिए बाहरी निमित्त उत्तेजक है । कर्मावरण को हटाने में सहयोगी अभिव्यंजक है। आत्मा में ही पड़ा हुआ ज्ञान प्रकट होता जाता है। निगोद की अव्यक्त अवस्था में भी मति-श्रुत का जो ज्ञान अनन्तवें भाग की अवस्था में अल्प प्रमाण में पड़ा है वही प्रगट होता होता केवलि अवस्था में अनंत स्वरूप में प्रकट हो जाता है। सर्वावरण क्षय होते ही सर्व ज्ञान, सम्पूर्ण ज्ञान प्रकट हो जाएगा । उसे ही अनन्तज्ञान या केवलज्ञान कहते हैं। तद्वान् उसे प्राप्त करने वाली आत्मा केवली - सर्वज्ञ या अनन्तज्ञानी कहलाती है। अतः ज्ञान आत्मा है। यह बात निश्चित है । ग्रीक दार्शनिक प्लूटो ने भी कहा है कि "Knowledge is Nothing but it is Intaitonal" ज्ञान यह बाहरी द्रव्य नहीं है यह तो आंतरिक है। अंदर से प्रकट होने वाला है । 1 1 ज्ञानादि ये भेदक गुण है : - अनंत ब्रह्मांड में जड़ और चेतन ये मुख्य दो ही द्रव्य है । तीसरा स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाला कोई द्रव्य है ही नहीं । अतः स्वतंत्र अस्तित्व रखनेवाले ये जड़-चेतन दो ही द्रव्य मूलभूत है। दोनों के अपने अपने गुण है। वे अपने द्रव्यों में ही निहीत रहते हैं। ज्ञान - दर्शनादि चेतन आत्मा में ही निश्चित रूप से रहते हैं, और वर्णगंधादि निश्चित रूप से जड में रहते हैं। एक दूसरे के गुण एक-दूसरे में संक्रमित नहीं होते हैं। गुणों में संक्रमण का स्वभाव नहीं है । अपने द्रव्य को छोड़कर बाहरी विजातीय द्रव्य में जाने का उनका स्वभाव नहीं है। जड़-चेतन दोनों है तो द्रव्य ही, तो फिर द्रव्य की एक ही जाति के दोनों द्रव्यों में गुण संक्रमित क्यों नहीं हो सकते हैं ? गुण को तो द्रव्य के आधार पर ही रहना है । द्रव्य के स्वरूप में तो जड़-चेतन दोनों द्रव्य ही है, तो फिर इसके गुण इसमें रह जाय तो क्या गलत है ? परंतु नहीं, ऐसा कदापि संभव नहीं है। जड़-चेतन दोनों द्रव्य की जाति के ही द्रव्य है फिर भी गुण संक्रमित नहीं होते हैं। जड़ के गुण जड़ में रहेंगे और चेतन के गुण चेतन आत्मा में ही - कर्म की गति नयारी (१६५
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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