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प्रकार का है। अनंत प्रकार के जड़ पुद्गल पदार्थ जगत में है। उन अनंत पुद्गल पदार्थों मे वर्ण-गंध-रसादि गुण रहते हैं। अतः ये पौद्गलिक द्रव्य कहलाते हैं। वर्णादि गुण कहलाते हैं। जो स्वयं निर्गुण है और पुद्गल द्रव्य के आश्रित होकर रहते हैं। पुद्गल के वर्णादि गुण पुद्गल को छोड़कर चेतन आत्मा में नहीं रहेंगे, उसी तरह आत्मा के ज्ञान-दर्शनादि गुण चेतन आत्मा को छोड़कर जड़-पुद्गल पदार्थों में कभी भी नहीं रहेंगे। वर्णादि के कारण पौद्गलिक द्रव्य रूपी है। रंग वाले है। रंगादि के कारण देखे जाते हैं, सूंघे जाते हैं, चखे जाते हैं, स्पर्श किये जाते है। परंतु चेतन आत्मा में ये वर्ण-गंध-रस-स्पर्शादि जड़ के गुण नहीं रहते हैं इसीलिए आत्मा अरूपी है, अगंधी, अरसी, अस्पर्शी है। अतः देखी नहीं जाती, सूंघी नहीं जाती, चखी नहीं जाती, स्पर्श भी नहीं की जाती। अतः जड़ - पुद्गल के गुणों से चेतनआत्मा का ज्ञान संभव नहीं है, नहीं होता है। उसी तरह आत्मा के ज्ञान दर्शनादि से जड़ पुद्गलों की भी पहचान नहीं होगी। द्रव्य की पहचान अपने खुद से गुणों से ही होती है। अपने से भिन्न स्वातिरिक्त गुणों से पहचान नहीं है। इसीलिए गुणोपार्जनगुणोत्कर्ष-गुणप्रादुर्भाव का धर्म वीतरागीयों ने बताया है। उसके लिए गुणानुराग सहायक आलंबन है। अतः यह निश्चय हुआ कि ज्ञान दर्शनादि गुण है । स्वयं नहीं है। द्रव्य के आश्रित रहने वाले गुण है। आत्मा चेतन द्रव्य है। ज्ञान-दर्शनादि आत्मा के प्रमुख गुण है। कर्म संयोगवश आज ये ज्ञानादि गुण आच्छादित है। दबे हुए हैं, ढके हुए हैं। अब उन्हें प्रकट करना ही होगा। उन्हें प्रकट करने के लिए पूर्ण रूप से ज्ञानादि का प्रादुर्भाव करने के लिए उसके ऊपर के आवरक-आच्छादक कर्मों को हटाना पड़ेगा, उन कर्मों का क्षय करना पड़ेगा। जैसे बादल हटे कि सूर्य साफ दिखाई देगा। वैसे ही कर्म आवरण हटे कि आत्मा साफ स्वच्छ मूलभूत स्वरूप में दिखाई देगी। गुण मूलभूत अंतस्थ है।
गुण द्रव्य के अंदर ही रहते हैं। गुणों के आधार पर ही द्रव्य का स्वरूप है। गुण समूहात्मक द्रव्य होने से द्रव्य-गुण का अभेद संबंध है, भेद नहीं है। गुण द्रव्य को छोड़कर एक क्षण भी बाहर नहीं रहता। सदा काल ही गुण द्रव्य के आधार पर ही रहते हैं। अतः गुणवान् द्रव्य कहलाता है। चाहे वे ज्ञानादि गुण हो या चाहे वर्ण-गंधरस-स्पर्शादि गुण हो वे गुण द्रव्य में ही आश्रित रहेंगे। ज्ञानादि गुण चेतन आत्मा में रहते हैं तो वर्णादि गुण पुद्गल में रहते हैं । ये उन द्रव्य के निश्चित गुण है । ये ज्ञानादि गण बाहर से नहीं आते हैं। आत्मा में ही निहीत है, मूलभूत पडे हए हैं । बाहर से कहां से आए? बाहर कहां रहते हैं जो आए? बाहर तो आकाश है। आत्मा के बाहर तो जड़ द्रव्य है। जड़ में तो ज्ञानादि रहते नहीं है। आकाश भी अजीव द्रव्य है। अतः बहार से आने का प्रश्न ही कहां रहता है ? ज्ञानदर्शनादि गुण आत्मा के अपने मूलभूत कर्म की गति नयारी