________________
रहेंगे। इसलिए दोनों जड़-चेतन द्रव्यों को अलग करनेवाले उनके गुण है। ज्ञान-दर्शन के कारण जीव चेतन कहलाता है । उसी तरह वर्ण-गंध- -रस-स्पर्शादि गुणों के कारण जड़-जड़ द्रव्य कहलाता है । इसलिए गुण द्रव्य भेदक कहलाते हैं। जड़ और चेतन दोनों ही भिन्न-भिन्न स्वतंत्र द्रव्य है दोनों के गुण सर्वथा भिन्न होने से जड़ अपना अलग स्वतंत्र अस्तित्व रखता है और चेतन जीव अपना अलग स्वतंत्र अस्तित्व रखता है। इन दोनों में ज्ञान - दर्शन ही प्रमुख भेदक गुण है।
,
ज्ञान योग की प्राधान्यता :
आत्मा के कई गुण है, परंतु उन सब में ज्ञान ही एक मात्र प्रमुख गुण है। अन्य सभी गुणों का आधार ज्ञान गुण पर है। सुख-दुःख के संवेदन में भी ज्ञान गुण की ही प्राध्यानता है। चारित्र गुण भी ज्ञानाश्रयि है | चारित्र के आचरण में भी ज्ञान की आवश्यकता है । ज्ञानयुक्त तथा ज्ञानानुसारी चारित्र ही तारक बनेगा । ज्ञान ही विवेक स्वरूप है। हेय - ज्ञेय और उपादेय का विवेक ज्ञान के आधार पर ही होगा। अज्ञानी विवेक नहीं रख पाता है। ज्ञानी विवेक का भी सूक्ष्म रूप से आचरण कर सकता है। क्या हेय अर्थात् त्याज्य है ? क्या ज्ञेय अर्थात् जानने योग्य है ? क्या उपादेय-अर्थात् आचरने योग्य है ? इस प्रकार का विवेक ज्ञानी को विशेष रखना है । इसलिए ज्ञान योग की साधना सबसे ज्यादा प्राधान्यता रखती है। शास्त्रकार महर्षियों ने व्याख्यान-प्रवचन का अधिकार भी ज्ञानी गीतार्थ को दिया आलोचना- प्रायश्चित भी ज्ञानी गीतार्थ से लेने को कहा है। विहार भी ज्ञानी गीतार्थ की निश्रा में या उनकी आज्ञानुसार करने के लिए कहा। अंत यहां तक कह दिया है कि ज्ञानी - गीतार्थ के हाथों से हलाहल जहर भी पीना अच्छा है, परंतु अज्ञानी अगीतार्थ के हाथों से अमृत पीना भी बुरा है। लोक-व्यवहार में मरीज कहते हैं कि अच्छे विशेषज्ञ कुशल वैद्यहकीम या डॉक्टर के हाथों से मरना भी अच्छा है परंतु मूर्ख अर्धज्ञानवाले या अल्पज्ञानवाले ऊंट वैद्य या नकली डॉक्टरों के हाथों से अमृत पीकर जीना भी भयावह है। ज्ञान योग से ही आत्मा-परमात्मा को समझ सकेंगे। तत्त्वार्थ और यथार्थ दोनों स्वरूप ज्ञानयोग से ही समझ सकेंगे। ज्ञानी ही सुख की सच्ची दिशा समझ पाते हैं । ज्ञानी ही सत्य की सही खोज कर पाता है। ज्ञान योग की सही साधना से ही तत्त्वातत्त्व का विपर्यास दूर होता है । पदार्थों एवं तत्त्वों की यथार्थता - वास्तविकता ज्ञानगम्य ही है। ज्ञानयोग के बल पर ही परोक्ष रूपसे स्थित स्वर्गापवर्ग, लोकपरलोक, स्वर्ग-नरक, पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म एवं कर्म-धर्म तथा मोक्षादि तत्त्वों का सही बोध प्राप्त कर सकते हैं। स्व-पर का निश्चयात्मक प्रमाण भूत ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। प्रमाणनय तत्त्वालोक, जैन तर्क भाषा आदि प्रमुख तर्क- न्याय ग्रंथों में व्याख्या करते हुए यही कहा है कि - "स्व - पर व्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम्” । स्व कर्म की गति नयारी
(१६६