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________________ खिंचती है, तब आत्मा में आए हुए कार्मण परमाणुओं का प्रमाण (कितना है) यह प्रदेश बंध कहलाता है। जैसे तम्बाकू का पावडर जिसे तपकीर या नसवार या अन्य नामों से भी कहते हैं उसे एक बुढि सूंघती है- नाक से खिंचती है। वह उसके शरीर में जाती है। एक बार सूंघने में कितने परमाणु गए ? उसी तरह दिन में १० - २० बार सूंघे तो कितने तम्बाकू के परमाणु उसके शरीर में गए ? उसी तरह प्रदेश बंध की प्रक्रिया में आत्मा कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं को खिंचती है। इस प्रदेश बंध के बाद रस-बंधादि के आधार पर उन कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं का एक पिंड बनेगा वह कर्म कहलाएगा। जब तक कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणु बाहरी आकाश में स्थित है तब तक वे कर्म नहीं कहलाएंगे। वहां तो वे पुद्गल परमाणु ही कहे जाएंगे, परंतु आत्मा में आने के बाद इन कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं में तथाप्रकार के कषाय आदि के रस के आधार पर एक पिंड बन जाएगा वह कर्म कहलाएगा । जैसे गेहूं के आटे में पानी डालकर मसलकर एक पिंड बनाया उसी तरह यहां कार्मण वर्गणा के पुद्गलं परमाणुओं का पिंड बनता है । यही कार्मण शरीर एक सूक्ष्म शरीर के रूप में आत्मा के चारों तरफ लिपटा रहता है। आत्मा इसी सूक्ष्म कार्मण शरीर में बंदिस्त रहती है । जन्म-जन्मांतर में गति आदि इसी के आधार पर होती है। यह सूक्ष्म - कार्मण शरीर अनादि काल से आत्मा के साथ लगा हुआ है। समुद्र में से पानी भाप बनकर उडता है - बादल बनकर फिर बरसता है- फिर समुद्र में पानी आता है, इस तरह समुद्र का अस्तित्व वैसा ही बना रहता है। वैसे ही इस सूक्ष्म कार्मण शरीर (कर्म पिंड) में नए कार्मण पुद्गल परमाणु आते रहते हैं और पुराने जिनकी अवधि समाप्त हो चूकी है वे जाते हैं। यह क्रिया सतत् चलती रहती है। कर्म पिंड रूप सूक्ष्म कार्मण शरीर अनादि काल से आत्मा के साथ लगा हुआ ही है। अतः संसारी आत्मा सदा ही कर्मसहित-कर्म संयुक्त - कर्ममय ही कहलाती है । अतः पूर्व कर्मोदय से नए कर्म बांधती है नए कर्म पुनः पुराने बनते हैं, उनका पुनः उदय होगा, पुनः नए कर्म का बंध होगा । कर्म संयोग से जीव का दुःखी होना और दुःखी होकर फिर कर्म बांधना, यह अनंत का चक्र चलता ही रहता है । इसीलिए कर्म संयोग के कारण आत्मा को अनंतकाल से भटकना ही पड़ रहा है और भटक रही है । अब यदि धर्म के संयोग से या माध्यम से जीव को नए कर्म सर्वथा नहीं बांधने हैं तो ऐसी पूर्ण प्रतिज्ञा करले और पुराने कर्म सर्वथा क्षय करने ही है इस संकल्प पर चले तो सव्वपावप्पणासणो - सर्व पाप कर्मों को नाश हो जाय तो आत्मा सदा के लिए मुक्त हो जाय । मुक्त होना या मोक्ष में जाने का अर्थ ही है कि अनादि के कर्म बंधकार्मण शरीर से सदा के लिए मुक्त होना, छुटकारा पाना । रोग निवृत्ति के लिए जैसे औषध है वैसे ही कर्म निवृत्ति के लिए धर्म है। यदि धर्म के मार्ग पर नहीं चढ़े तो कर्म कर्म की गति नयारी १५२
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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