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________________ (६) भाषा वर्गणा जो व्यक्त-अव्यक्त भाषा बोलते हैं उन जीवों को बोलने के लिए भाषा वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं की आवश्यकता पड़ती है। इसे ग्रहण करके ही जीव बोल सकते हैं। अतः बोलने योग्य ग्रहण करने के लिए भाषा वर्गणा है। 1 - (७) मन वर्गणा 1 संज्ञी समनस्क पंचेन्द्रिय सभी जीव विचार करते हैं सोचने की क्रिया करने के लिए -विचारने के लिए जीव बाहरी वातावरण में से मनो वर्गणा को खिंचकर उसका पिंड़ बनाता है । उसे हम मन कहते हैं, अतः मन आत्मा नहीं है । मन आत्मा से भिन्न पौगलिक पिंड है। अजीव है। I - (८) कार्मण वर्गणा - जीवं राग- -द्वेष- कषायादि के आधीन होकर आश्रव मार्ग में स्थित होकर बाहरी वातावरण में से कर्म योग्य कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं के समूह को खिंचता है। ग्रहण करता है उसे कर्मण वर्गणा कहते है। यही कार्मण वर्गणा कर्म रूप में परिणमन होती है, अर्थात् कार्मण वर्गणा का ही कर्म बनता है। कर्म बनाने योग्य पुद्गल परमाणुओं के समूह को कार्मण वर्गणा कहते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि कर्म पौगलिक है। जड़ है। आत्मा पर बाहरी आवरण विशेष है। सूक्ष्मतम होने के कारण अदृश्य है। यह १६ महावर्गणाओं में ग्रहण योग्य अष्ट महावर्गणाओं का स्वरूप है। क्रमशः इनमें उत्तरोत्तर सूक्ष्म-सूक्ष्म होती जाती है। वैसे सभी सूक्ष्म है। परंतु पहली से दूसरी ज्यादा सूक्ष्म है। दूसरी से तीसरी और भी ज्यादा सूक्ष्म है । उसी तरह अन्तिम कार्मण वर्गणा सबसे ज्यादा सूक्ष्मतम है। अतः अत्यन्त सूक्ष्मतम होने से दृश्य नहीं है। उदाहरणार्थ जैसे समझीए गेहूं का आटा कितना बारीक है। उससे भी उसका चापट कैसा स्थूल है ? तथा गेहूं का मैदा कितना ज्यादा बारीक है। उससे तरह इन वर्गणाओं में सूक्ष्म से सूक्ष्मतर का भेद है। इनमें सबसे ज्यादा अन्तिम कक्षा की सूक्ष्मता कार्मण वर्गणा में है। संसारस्थ जीव संसार में पुद्गल के आधार पर रहता है। अतः जीव के रहने के लिए जिस पर (शरीर) की आवश्यकता पड़ती है उसे निर्माण करने के लिए लोक में रही औदारिक आदि शरीर योग्यं वर्गणा के समूह को ग्रहणकर जीव शरीर बनाता है। उसी तरह श्वासोच्छ्वास वर्गणा ग्रहण कर श्वासोच्छ्वास लेता है । उसी तरह भाषा वर्गणा के पुद्गल - परमाणुओं को ग्रहण कर जीव बोलता है। भाषाकीय वचन व्यवहार करता है । उसी तरह विचार करने के लिए मनोवर्गणा के पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण कर मन बनाता है। तभी जीव सोच सकता है - विचार कर सकता है,अन्त में संसार में परिभ्रमण करने हेतु - एक गति से दूसरी गति-जाति आदि में जाने एवं जन्म-मरणादि धारण करते हुए ८४ लक्ष जीव योनियों के चक्कर में चारों गति में घूमने के कारणभूत कर्म बनाने के लिए जीव कार्मण वर्गणा ग्रहण करता है । कर्म की गति नयारी -११८
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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