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उसी कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं का बनाया हुआ पिंड़ ही कर्म कहलाता है। जब तक कार्मण वर्गणा आत्मा से नहीं मिली है अर्थात् आत्म प्रदेशों में कार्मण वर्गणा का प्रवेश नहीं हआ है वहां तक वे कर्म नहीं कहलाते हैं। जब जीव कार्मण वर्गणा ग्रहण कर उसे कर्म पिंड़ रूप बनाता है तभी वह कर्म कहलाता है। असंख्य प्रदेशी आत्मा :
जैसे एक कपडे में तंतु से बना धागा खडी और आडी दो पंक्तियों में लगा रहता है। उन दोनों धागों के क्रोस पोइन्ट होते हैं। उसी तरह आत्मा एक द्रव्य है। उसमें असंख्य प्रदेश होते हैं। अतः यह असंख्य प्रदेशी एवं अखंड द्रव्य है। इन्ही असंख्य प्रदेशों पर बाहर से आई हुई कार्मण वर्गणा चिपकती है, परंतु इन असंख्य प्रदेशों में केन्द्र के आठ रुचक प्रदेश ऐसे हैं जिन पर कदापि कोई कार्मण वर्गणा नहीं चिपकती।
ये आठ रुचक प्रदेश सदा के लिए कर्म . से अछूते ही रहते हैं। शुद्ध मूलभूत स्वरूप में रहते हैं। इनका स्वरूप कभी भी बदलता नहीं है। आत्मा के आठ मूल गुणों को व्यक्त स्वरूप में प्रगट रखने वाले ये आठ रूचक प्रदेश हैं। 'असंख्य में ये सिर्फ आठ ही ऐसे हैं।
अन्य असंख्य प्रदेशों पर कार्मण वर्गणा लगती है। आत्मा इन असंख्य प्रदेशों का समूह स्वरूप एक अखण्ड द्रव्य है। यह आत्मा की रचना का स्वरूप है।
कभी भी एक प्रदेश भी खडित होकर अलग नहीं होता है। चाहे अकस्मात में अंग कट भी जाय तो भी कटे हुए अंग में रहे आत्म प्रदेश पुनः मूल शरीरी आत्मा में आ जाते हैं, परंतु कट कर अलग नहीं हो जाते। चाहे कितना भी छेदन-भेदन-विदारण-काटना आदि नरक में या कतलखाने में कहीं भी हो परंतु आत्मा कटती नहीं है। खंडित नहीं होती - सदा ही अखंड स्वरूप में रहती है। संकोच-विकासशील स्वभाव वाली आत्मा अपने असंख्य प्रदेशों का अत्यन्त संकूचन करके एक छोटे से छोटे या सूक्ष्म शरीर में भी समा कर रह जाती है। उसी तरह जब बड़ा स्थूल विशाल शरीर मिलता है तब फैलकर उसमें रहती है। तब
आत्मा अपने आत्म प्रदेशों को फैला देती है। पक्षी के पंख जिस तरह फैलने पर लम्बे दिखाई देते हैं। और सिकुडने पर छोटे हो जाते हैं। समेट कर बन्द कर लेता है। मोर अपने पंख फैलाता है तब कितना क्षेत्र रोकता है और समेट लेता है तब कितनी जगह (११९
कर्म की गति नयारी