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________________ लोकाकाश सीमित परिमित है। इसे १४ रज्जु प्रमाण कहते हैं। रज्जु एक माप विशेष है। ऐसे नीचे से ऊपर तक १४ रज्जु प्रमाण यह लोक है। रज्जु राज को भी कहते हैं। १ रज्जु बराबर १ राजलोक ऐसे १४ राजलोक हैं। इसलिए १४ राजलोक प्रमाण इस विराट ब्रह्मांड को कहते हैं। इसी को लोकाकाश भी कहते हैं। तथा लोक के बाहरी प्रदेश को अलोक या अलोकाकाश कहते हैं। चाहे लोक का आकाश हो या अलोक का आकाश, आकाशस्वरूप से दोनों समान ही है। दोनों विभाग में प्रसृत आकाश द्रव्य एक ही है। आकाश एक अखंड अविभाजित द्रव्य है। सिर्फ लोक-अलोक की उपाधि के कारण औपाधिक नाम लोकाकाश और अलोकाकाश पड़ा है। उदाहरणार्थ घटाकाश, मठाकाश यदि कहते हैं, अर्थात् एक घड़े का भीतरी आकाश, एक मठ हो उसके अंदर का आकाश । यह आकाश का उपाधि जनित नाम है। इससे अखंड आकाश के टुकड़े नहीं होते हैं। जैसे भारतीय आकाश, पाकिस्तानी आकाश। ये नाम जो रखे गए हैं क्षेत्र के आकाश के आधार पर है । परन्तु आकाश खंडित नहीं . होता है। उसी तरह लोकाकाश और अलोकाकाश भी एक अखंड आकाश के दो औपाधिक नाम मात्र है। परन्तु लोक और अलोक दोनों का आकाश एक अखंड आकाश ही है। . लोकाकाश का ही संक्षिप्त नाम लोक कहते हैं। यही १४ रज्जु प्रमाण होने से १४ राजलोक कहते हैं। इस लोकाकाश में तीन लोक हैं। जैसा कि १४ राजलोक का नक्शा पृष्ठ पर दिया गया है। तीन लोक में (१) ऊर्ध्व लोक-जिसे देवलोक-स्वर्ग भी कहते हैं। (२) तिर्छालोक-तिर्यक् लोक और मृत्यु लोक या मनुष्य लोक भी कहते हैं,और तीसरा है अधो लोक। जिसे पाताल या नरक-लोक भी कहते हैं। इन्हीं तीनों लोकों में जीव राशि रहती है। अतः उनके नाम के आधार पर भी लोक का नाम पड़ा है। जैसे ऊपर स्वर्ग के देवी-देवता रहते हैं इसलिए देव-लोक नाम रखा। मनुष्यों के रहने के कारण मनुष्य लोक नाम रखा। तिर्छा के कारण तिर्यक् लोक नाम भी प्रचलित है। नीचे अधो लोक में नरक के नारकी जीव रहते हैं अतः नरक भी कहा । इस तरह तीन लोक हैं। तीनों लोक का सम्मिलित पूरा नाम १४ राजलोक है। समस्त जीव सृष्टि इसी १४ राजलोक में रहती है। इसके बाहर एक सूक्ष्म जीव भी नहीं है। कर्म की गति नयारी (१०६)
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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