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________________ दोनों ही नहीं है अतः जगह दे तो भी किसको दे? इसीलिए अलोक कहलाता है । इस अलोक का आकाश रिक्त आकाश कहलाता है। अतः इसे शून्याकाश भी कहते है। शून्य = अर्थात् रिक्त स्थान-खाली जगह। जहां कुछ भी नहीं है। सिर्फ यह अलोकाकाश अनंत है। इसका अंत ही नहीं है। सीमातीत है। लोक स्वरूप : इस अनंत अलोकाकाश के केन्द्र में लोक है। जैसा कि चित्र में दिखाया गया है कि पुरुष अपने दोनों हाथ कमर पर रखे हुए और दोनों पैर फैला कर खड़ा है। इसी आकृति का लोक है। अतः इसे लोक पुरूष भी कहा जाता है। जिसे हम विराट ब्रह्मांड कहते है वही यह विराट लोक है। अनंत अलोकाकाश के केन्द्र में रहे इस लोक स्वरूप की सीमा बताने के लिए पुरुषाकृति दी गई है चूंकि अलोकाकाश तो अनंत है परन्तु लोकाकाश अनंत नहीं है। वह तो सीमित है। परिमित क्षेत्र में ही है। इसलिए लोक की सीमा बताने के लिए पुरुषाकृति उद्बोधक है। जिस तरह पुरुष खड़ा है। उतनी ही लोकाकाश की सीमा है, अर्थात् दोनों पैर के अंतर के समान नीचे ज्यादा चौड़ा है। फिर ऊपर-ऊपर चढ़ते हुए अंतर कम होता जाता है। कमर के भाग की तरह बिल्कुल कम है । फिर दोनों हाथ की स्थित के अनुरूप पुनः थोड़ा चौड़ा होता जाता है। फिर पुनः संकड़ा होता जाता है। गले के भाग तक जाकर बिल्कुल संकड़ा होता है। ऊपर मष्तक के भाग की तरह है। इसीलिए पुरूषाकृति के आधार पर लोक पुरूष का नाम दिया जाता है। यही लोक है। लोक पुरुष के अंदर का भाग लोकाकाश कहलाता है और उसके बहार का मात्र अलोकाकाश कहलाता है। अलोकाकाश सीमातीत अनंत है। जबकि (१०५ कर्म की गति नयारी
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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