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________________ I संगत सिद्ध होता है । अन्य कोई भी कारण सिद्ध हो नहीं सकता । ईश्वरादि अविनाभाव सम्बन्ध भी नही गिने जाएंगे । कालादि भी सम्भव नहीं है । कार्य के लिए कारण की अनन्यथा सिद्ध नियत पूर्ववर्ती होती है । कारण का लक्षण ही “अनन्यथासिद्धत्वे संति नियतपूर्ववर्तित्वं कारणस्यलक्षणं” बताया गया है । इस तरह भी सोचें तो सुख-दुःखात्मक कार्य के लिए अनन्यथासिद्ध नियतपूर्ववर्ति कारण शुभा - शुभ कर्म ही हो सकता है । अतः सुख - दुःख के आधार पर कर्म की सिद्धि होती है । सुख-दुःख वाला जो सुखी - दुःखी व्यक्ति विशेष उसी के उपार्जित शुभाशुभ कर्म का वह कार्य है । अतः किसी को सुखी देखें तब यह कारण समझना चाहिये कि इस जीव ने शुभ पुण्य कर्म उपार्जित किया है। जो भूतकाल में किया था और आज वर्तमान में यह सुख रूप फल भोग रहा है। किसी दीन-दुःखी दरिद्र को देखकर उसने अशुभ पाप कर्म उपार्जित किया होगा अतः उस कर्मानुसार आज यह दुःखी है। अग्नि के लिए धूम का प्रत्यक्ष होना जिस तरह अनिवार्य है उसी तरह कर्म अनुमान के लिए सुखी दुःखी का प्रत्यक्ष होना अनिवार्य है । अतः सुखी - दुःखी को प्रत्यक्ष देखकर शुभाशुभ कर्मों का सही ज्ञान होता है। ये कर्म चाहें एक व्यक्ति के हों या चाहे समष्टि के हों। संसार में अनन्त जीव है । अनन्त जीव सभी कर्म-ग्रस्त है । सभी कर्म बांधते हैं अतः सभी कर्म फल भोगतें हैं । अब यह सोचें कि कर्म क्या है ? जीव क्या है ? क्यों जीव कर्म बांधता है ? यह संसार क्या है ? इस संसार में क्या है ? इत्यादि । लोक- अलोक स्वरूप : I अनन्ताकाश स्वरूप लोकालोक है । लोक शब्द यहां क्षेत्र वाची है। इस अनन्त आकाश के दो विभाग किये जाते हैं। एक अलोक एवं दूसरा लोक। अलोक एवं लोक इन दोनों शब्दों के साथ आकाश शब्द जोड़कर एक शब्द बनाकर व्यवहार करें तो (१) अलोकाकाश एवं (२) लोकाकाश शब्द बनेंगे। जिस क्षेत्र का अन्त ही नहीं है वह अनंत आकाश स्वरूप है । जिस लोक में रहने वाली कोई भी वस्तु नहीं रहती वह अलोक है । जीव या अजीव अलोक में कुछ भी नहीं रहता है अर्थात् एक सूक्ष्म जीव भी अलोक में नहीं रहता है उसी तरह अजीव तत्त्व के पुद्गल का सूक्ष्म परमाणु भी जहां नहीं रहता है वह अलोक है । तो फिर अलोक में क्या है ? इसका उत्तर इसीके वाचक शब्द से मिल जाता है। अलोक + आकाश = अलोकाकाश अर्थात् अलोक में सिर्फ आकाश है। आकाश आधार द्रव्य है । जो जीव- अजीव द्रव्यों का आधार है । आकाश अवकाश देने में सहायक है । जीव एवं अजीव को रहने के लिए स्थान-जगह प्रदान करना इसका गुण है । परन्तु अलोक में जीव अजीव कर्म की गति नयारी I १०४
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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