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एवं स्वभावों के भेद एवं परिवर्तन से ईश्वर को एकान्त नित्य कैसे मान सकते हैं ?
मान लो कि ईश्वर नित्य है तो उसमें रही हुई इच्छा भी नित्य होगी । इच्छा नित्य है तो सृष्टि रचना का कार्य नित्य चलते ही रहना चाहिए । इच्छा ईश्वर को सदा काल प्रवृत्त करती ही रहेगी। दूसरी तरफ आप ईश्वर में बुद्धि-इच्छा-प्रयत्न-संख्यापरिणाम-पृथक्त्व-संयोग और विभाग नामक आठ गुणों को स्वीकारते हो। ईश्वर की नित्यता के साथ इच्छा की भी सदा नित्यता ईश्वर में स्वीकारें तो नाना कार्यों के आधार पर इच्छाएं भी भिन्न-भिन्न विषयक माननी पड़ेगी। चूं कि कार्य कई प्रकार के है। इस तरह ईश्वर की इच्छाओं के विषय होने से ईश्वर को भी अनित्य मानना पड़ेगा। क्या ईश्वर को कर्ता या निमित्त कारण मानें ?
यदि ईश्वर ने पृथ्वी-पानी-अग्नि-वाय के परमाणुओं से तथा अदृष्ट (पूर्वकृत कर्म संस्कार) को ध्यान में रखकर यदि जीवों के कल्याण हेतु इस जगत की सृष्टि का सर्जन कीया है और वह भी नित्य विद्यमान दिशा; काल और आकाश में की है तो फिर ईश्वर को अधिक निमित्त कारण (Efficient Cause) मान सकते हैं। परंतु सृष्टि कर्ता कहा नहीं जा सकता; क्यों कि न्यायवैशेषिक मतानुसार ईश्वर इस जगत को शून्य से उत्पन्न नहीं करता है। अच्छा इस तरह ईश्वर को निमित्त कारण मानें तो फिर ईश्वर जीवों की शुभाशुभ कार्य प्रवृत्ति में निमित्त नहीं बनेगा। चूं कि अदृष्ट ही जीवों के लिए कारण है। अपने पूर्वकृत कर्म संस्कार रूप अदृष्ट के लिए जीव स्वयं उत्तरदायी है ईश्वर नहीं। इस तरह जीव स्वयं अपने शुभाशुभ का कर्ता है तो उसे ही भोक्ता भी मानना ही पडेगा। कालानुसार वह जीव उस अदृष्ट (कर्म) के फल को भोगेगा। अतः ईश्वर का जीवों के शुभाशुभ कर्म एवं फल के विषय में हस्तक्षेप फिर नहीं रहेगा । अतः ईश्वर न तो सृष्टि कर्ता और न ही कर्म फल दाता सिद्ध होता है। शुद्ध परमेश्वर-स्वरूप :
इतनी सुदीर्घ एवं सुविस्तृत तर्क युक्ति पुरस्सर चर्चा से यह निष्कर्ष निकलता है कि ईश्वर कोई ऐसी सत्ता नहीं है जो सृष्टि की रचना करता है, प्रलयसंहारादि करता है-यह किसी भी रूप में सिद्ध हो नहीं सकता है। उसी तरह ईश्वर कर्म फलदाता के रूप में भी सिद्ध नहीं होता है। उसी तरह ऐसे ईश्वर के विषय में दिये गए विशेषण जगत का कर्ता, एक ही है, वही नित्य है, सर्वव्यापी तथा स्वतंत्र है। ये कोई विशेषण भी सिद्ध नहीं होते। इन विशेषणों से परस्पर विरोधाभास खडा होता है । जैसे तराजु में चूहों को तौलना कठिन है वैसे ही इन विशेषणों को तर्क युक्ति की तुला में
बैठाना कठिन है, असंभव सा है। एक सिद्ध करने जाओ तो दूसरा टूटता है। दूसरे सिद्ध करने जाओ तो तीसरा प्रसिद्ध होता है। इस तरह यह चर्चा तो काफी लम्बी
कर्म की गति नयारी
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