________________
चौडी है। परन्तु मूल में ही जो सृष्टि कर्तृत्व माना है वही सिद्ध नहीं हो सकता है तो दूसरी बातें उसी के आधार पर सिद्ध नहीं होती है।
अतः निरीश्वरवादी जैनों का कहना है कि बलात् ईश्वर पर कर्ता-नित्यएकादि विशेषण बैठाने से दोष आता है और ये विशेषण शोभास्पद नहीं ठहरते, अपित् ईश्वर की विडंबना करते हैं। योग्य आभुषणों को स्वरूपवान स्त्री भी यदि सुयोग्य स्थान पर नहीं पहनती है,तो वह भी हास्यास्पद बनती है। उसी तरह ईश्वर में जो सृष्टि कर्तृत्व-फल दातृत्व आदि सिद्ध होते ही नहीं है उनको जबरदस्ती ईश्वर पर बैठाने से ईश्वर का स्वरूप हास्यास्पद-विकृत सिद्ध होता है । फिर ऐसे विकृत स्वरूप वाले ईश्वर की हम उपासना, भक्ति,नामस्मरण,ध्यानादि कैसे करें? पत्नी को दुराचारिणी दुश्चरित्र देखकर फिर उसके प्रति प्रेम कैसे उत्पन्न होगा? इसी तरह विडंबना युक्त हास्यास्पद विकृत स्वरूप ईश्वर का देखते हुए उसके प्रति आदर, पूज्य-भाव, भक्ति-भाव कैसे उत्पन्न होंगे? संभव ही नहीं है।
अतः ईश्वर को पूर्ण शुद्ध स्वरूप में स्वीकारना अनिवार्य है। उसे सृष्टिकर्ता संहारकर्ता न मानकर सर्व कर्ममुक्त, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, राग-द्वेष रहित-वीतराग, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त मानना जरूरी है। मोक्षमार्ग का उपदेष्टा मानना चाहिए। आत्मा का ही पूर्ण शुद्ध स्वरूप है। विद्यानंदी ने यही कहा है
मोक्ष मार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्म भूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्व तत्त्वानां, तीर्थेशं स्मृतिमानये ।।
जो मोक्षमार्ग दिखाने वाले हैं, गन्तव्य मोक्ष तक ले जाने में सहायक आलम्बन है, कर्मों के पर्वतों को जिसने तोड दिये हैं, तथा जो समस्त विश्व के सभी तत्त्वों-पदार्थों के ज्ञाता सर्वज्ञ है ऐसे तीर्थेश-तीर्थंकर का मैं स्मृति पटल में स्मरण करता हूँ। बात यही सही है। जो अरिहंत हो वही भगवान कहलाने योग्य है। परन्तु जो भगवान हो वह अरिहंत नहीं भी कहला सकते हैं। चूंकि अरिहंत अरि = काम क्रोधादि शत्रु (काम-क्रोध-मान-माया-लोभ-राग-द्वेषादि), हंत = नाश अर्थात् जिन्होंने राग - द्वेषादि आत्म शत्रुओं का नाश-(क्षय) किया है ऐसे अरिहंत ही भगवान-ईश्वर कहलाने योग्य है।
____ईश्वर ही नहीं परमेश्वर वे ही कहे जाएंगे। परम+ईश्वर = परमेश्वर । परम+आत्मा = परमात्मा । अतः जैन निरीश्वरवादी नहीं, परमेश्वरवादी हैं । सृष्टि-कर्ता ईश्वर को जैन नहीं स्वीकारते हैं, इस अपेक्षा से जैनों को निरीश्वरवादी कहना उचित है। परन्तु साथ ही साथ परम शुद्ध आत्मा को परमेश्वर कहते हए जैनों को परमेश्वरवादी भी कहना होगा। परमोच्च-परम शुद्ध-पूर्ण वीतराग को परमेश्वर मानने वाले जैनों ने प्रभु के स्वरूप में हास्यास्पदता या विकृति खड़ी नहीं की। अतः भक्ति उपासना में सदा ही (८७
कर्म की गति नयारी