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दूसरी तरफ सृष्टि सर्जन और संहार दोनों एक साथ स्वीकारें तो भी संभव नहीं है। कुम्हार घडे बनाता जाय और फोडता जाय? माँ बच्चे को जन्म देती जाये
और फिर मारती जाय? फिर जन्म दे और फिर मार दे, तो निरर्थक प्रसव पीड़ा सहन करने का दुःख क्यों सर पर लेगी? उसी तरह दोनों स्वभाव साथ रखकर ईश्वर कार्य करे तो सृष्टि निर्माण और संहार दोनों एक साथ संभव भी कैसे हो सकता है ? सृष्टि रचना निरर्थक निष्प्रयोजन सिद्ध होगी। आप यदि यह कहें कि लीला-विलास मात्र के लिए ही ईश्वर ऐसा करता है - यह पक्ष स्वीकारते हैं तो फिर करुणा-अनुग्रहनिग्रहादि या सर्वज्ञत्व या सर्वशक्तिमानादि पक्ष निष्प्रयोजन सिद्ध होंगे। करुणा के रहने पर संहार मानना यह पानी में से आग निकालने के बराबर होगा । करुणा से संहार हो ही नहीं सकता है। तो क्या आप संहार-प्रलय के लिए दानवी-राक्षसी क्रूरता का अस्तित्व ईश्वर में मानेंगे? यह तो ईश्वर का उपहास करने की चरम सीमा हो जाएगी। क्रूर-दानव-राक्षस भी कहना और ईश्वर भी कहना यह मूर्ख व्यक्ति भी नहीं स्वीकारेगा।
- अच्छा आप सृष्टि रचना और प्रलय कारक संहार दोनों ईश्वर के कार्य मानोगे तो ईश्वर में नित्यत्व सिद्ध नहीं होगा। अनित्यत्व आ जाएगा । अच्छा दोनों क्रिया के कर्ता भिन्न-भिन्न मानोगे तो आपका एकत्व पक्ष चला जाएगा। एक ईश्वर नहीं रहेगा। नाना ईश्वर मानोगे तो अनेकेश्वरवादी कहे जाओगे। यह तो पैर के नीचे की भी जमीन जा रही है।
क्या ईश्वर जिस स्वभाव से सृष्टि की रचना करता है। उसी स्वभाव से संहार करता है या भिन्न स्वभाव से? यदि ईश्वर को सदा एक ही स्वभाववाला मानोगे तो दो भिन्न भिन्न कार्यों की संभावना ही नहीं रहेगी। सृष्टि रचना और प्रलय दोनों ही ठीक एक दुसरे के सर्वथा विपरीत कार्य है। अतः एक ही स्वभाव से दोनों विरोधी कार्य हो नहीं सकते। तथा ईश्वर को एकान्त नित्य मानने पर सृष्टि की तरह बन नहीं पायेगा। यदि ईश्वर सृष्टि रचना तथा संहारादि अनेक कार्यों को करेगा तो वह अनित्य हो जायेगा । अनेक कार्य तो आप स्वीकारते हैं। सिर्फ एक सृष्टि रचना ही नहीं अपितु पालन और संहार भी आप ईश्वर के ही कार्य के रूप में स्वीकारते हैं तो फिर अनेक कार्य हुए, और अनेक कार्यों के कारण ईश्वर में अनित्यता आ जायेगी। अनेक कार्य
और एकान्त नित्य दोनों परस्पर विरोधी है। यदि ईश्वर के स्वभाव में अनिश्चितता नहीं है तो सभी कार्य एक साथ ही हो जाएंगे तथा एक स्वभाव से अनेक कार्य संभव नहीं है। चूं कि कार्यानुरूप स्वभाव एवं स्वभावानुरूप कार्य होता है। स्वभाव भेद
अनित्यता का लक्षण है। आप ही कहते है कि ईश्वर सृष्टि रचनामें रजोगुण, संहार में तमोगुण एवं स्थिति में सत्त्वगुण रूप से प्रवृति करता है। इस तरह अनेक अवस्थाओं
कर्म की गति नयारी