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________________ अरिहन्तदेव स्वरूप : ३३ (१८) द्वष-वोतराग प्रभु द्वेष से भो सर्वथा रहित होते हैं, क्योंकि जब उनके आत्मा में किसी पदार्थ पर रागभाव नहीं रहा, तब उनमें द्वषभाव भी नहीं रह सकता; क्योंकि रागी आत्मा में एक पदार्थ पर राग होगा, तो दूसरे पदार्थ पर दुषभाव अवश्यमेव होगा और जिस आत्मा में राग-द्वष विद्यमान रहेंगे. उस आत्मा को सर्वज्ञ-सर्वदर्शी कसे माना जा सकेगा ? फिर तो हमारी तरह भगवान् भी रागी-दुषी कहलाएंगे, किन्तु वे ऐसे नहीं हैं। वे तो राग-द्वेष से सर्वथा रहित होते हैं। ___ यदि यह कहा जाए कि जब प्रभु अभयदान, प्राणिदया, जीवरक्षा आदि का उपदेश देते हैं, प्रेरणा करते हैं, जीवों को इस प्रकार बचाते हैं, तब क्या उस-उस जीव पर उनका राग नहीं होता? यह कथन भी युक्ति-विरुद्ध है; क्योंकि राग स्वार्थभाव है जबकि करुणा, दया, रक्षा आदि निःस्वार्थभाव से की जाती है। राग तीन प्रकार के होते हैं-कामराग (विषयों पर), स्नेहराग (सम्बन्धियों तथा मित्रों पर) और दृष्टिराग (अपनी मान्यताओं और धारणाओं पर)। ये तीनों प्रकार के राग आशा, प्रतिफल और स्वाथ से युक्त होते हैं, जबकि भगवान् के द्वारा कृत या उपदिष्ट करुणा आदि आशा, प्रतिफल और स्वार्थ से रहित होते हैं। यदि यह कहा जाए कि करुणा, दया आदि क्रियाओं के फलस्वरूप भगवान् को भी कर्मबन्ध होता है, जिसका फल भी उन्हें भोगना पड़ेगा। इस शंका का समाधान यह है कि भगवान् सर्वजीवों के प्रति मैत्री, दयामय चित्त से एवं वात्सल्य भाव से प्रेरित होकर प्राणिमात्र की रक्षा का उपदेश करते हैं;' न कि राग-द्वेष भावों के वशीभूत होकर । वास्तविकता यह है कि कर्मों के बन्धन के मुख्य कारण राग-द्वेष हैं, न कि दयाभाव, करुणा, वात्सल्य आदि । ये तो भगवान के स्वाभाविक निजगुण हैं। जैसे सूर्य का निजगुण-प्रकाश स्वाभाविक होता है, वैसे ही भगवान् का सर्वजीवों के प्रति वात्सल्यभाव स्वाभाविक गुण है। जैसे दीपक द्वारा प्रकाश करने की इच्छा वाले व्यक्ति को उस प्रकाश के कतिपय अन्य सहकारी पदार्थों को एकत्र करना पड़ता है, किन्तु सूर्य को प्रकाश के लिए किसी भी १ 'सव्वजगज्जीवरक्खणदयट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं । -प्रश्नव्याकरणसूत्र २ जयइ जगजीवजोणी वियाणओ जगगुरु जगाणंदो। जगणाहो, जगबन्धू, जयइ जगप्पियामहो भयवं ॥ . –नन्दीसूत्र, वीरस्तुति गा० १
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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