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३२ : जैन तत्वकलिका
अज्ञान है। ज्ञान न होने का कारण ज्ञानावरणीय कर्म है और विपरीत ज्ञान होने का कारण मोहनीय कर्म है । तीर्थंकर भगवान् इन दोनों कर्मों से सर्वथा मुक्त हैं । जैसे—सूर्योदय होते ही अन्धकार भाग जाता है, वैसे ही केवलज्ञानरूपी सूर्योदय होते ही भगवान् का समस्त अज्ञान तिमिर भाग चुका होता है । अतः सर्वज्ञ - सर्वदर्शी केवली भगवान् में अज्ञान-भाव लेशमात्र भी नहीं होता है ।
(१५) निद्रा - निद्रा का कारण दर्शनावरणीय कर्म का उदय है । भगवान् तो इस कर्म का पहले से ही क्षय कर चुके होते हैं । जब निद्रा का कारण ही नष्ट हो गया, तब फिर भगवान् को निद्रारूप कार्य की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? सर्वज्ञ तीर्थंकर प्रभु ज्ञानावरणोयादि चार घातिकर्मों. से रहित होने से सदाकाल जागृतावस्था में रहते हैं । यदि भौतिक दृष्टि की प्रमुखता मानकर यह तर्क दिया जाए कि निद्रा का मुख्य कारण आहारादि है । गरिष्ठादि आहार करने से नींद आती है, तो यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है । पहले कहा जा चुका है कि निद्रा का मूल कारण दर्शनावरणीय कर्म है जबकि क्षुधा का कारण वेदनीय कर्म का उदय है । केवली भगवान् के साता वेदनीयकर्म का उदय तो रहता है, किन्तु निद्रा के कारणभूत दर्शनावरणीय कर्म का अस्तित्व भी नहीं रहता । अतः आहारादि कारणों से निद्रादि कार्यों की कल्पना करना सर्वथा अयुक्त है । अतएव तीर्थंकर निद्रा दोष से रहित होते हैं ।
(१६) अविरति - तीर्थंकर विरतियुक्त होते हैं अतएव वे अप्रत्याख्यानी नहीं होते, किन्तु प्रत्याख्यानी और अप्रमत्त संयत पद धारक होते हैं । अतएव वे अविरति दोष से भी मुक्त होते हैं ।
(१७) राग - रागरूप दोष से तो भगवान् सर्वथा रहित ही होते हैं । क्योंकि राग का कारण मोहनीय कर्म है, जिसका सदा के लिए वे क्षय कर चुकते हैं। अगर तीर्थंकर का पदार्थों पर अथवा अपने संघ, भक्त, शरीर आदि पर रागभाव बना रहा तो वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता । रागयुक्त व्यक्ति अल्पज्ञों के समान संसार में रहेगा तब तक अनर्थकारी कुकृत्य करेगा, उनके दुःखजनक परिणाम भी जन्ममरणरूप संसार में भ्रमण करता हुआ भोगेगा । राग में माया और लोभ का भी अन्तर्भाव हो जाता है । फलतः रोगी आत्मा को माया और लोभ से युक्त भी मानना पड़ेगा । वीतराग सर्वज्ञ भगवान् इन सबसे परे होने के कारण उनमें लेशमात्र भी दोष नहीं हो
सकता ।