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३४ : जैन तत्त्वकलिका
सहकारी पदार्थ की आवश्यकता नहीं रहती । सूर्य का प्रकाश एकरसमय होता है । ठीक इसी तरह रागादि द्वारा जीवों की रक्षा दीपकप्रकाश तुल्य होती है, परन्तु वीतराग भाव से की जाने वाली रक्षा, दयादिरूप प्रवृत्ति सूर्यप्रकाशतुल्य एकरसमय होती है ।
अतः भगवान् के द्वारा कृत या उपदिष्ट करुणा, दया, वात्सल्य आदि रागादि की या कर्मबन्धन की कल्पना करना उनकी वीतरागता, निर्मोहता आदि को झुठलाना है और व्यर्थ ही उन पर कीचड़ उछालना है ।
वीतराग प्रभु राग-द्वेष आदि से सर्वथा अलिप्त रहते हैं । इस प्रकार तीर्थंकर अरिहन्त पूर्वोक्त अठारह दोषों से सर्वथा रहित होते हैं ।
तीर्थंकर की पूर्वोक्त कसौटी में खरा उतरने पर ही किसी व्यक्ति को वास्तविक तीर्थंकर माना जा सकता है । इसके अतिरिक्त तीर्थंकर पद प्राप्ति के जो कारण शास्त्र में बताये गये हैं, उनसे भी वास्तविक तीर्थंकर की पहिचान हो सकती है |
तीर्थंकर पद प्राप्ति के बीस स्थानक (कारण) १
कौन-सा आत्मा अर्हत् या अरिहन्त तीर्थंकर बन सकता है ? किन - किन क्रियाओं या किस-किस की आराधना से अर्हत्पद या तीर्थंकरत्व की प्राप्ति हो सकती है ? इस विषय में आचार्य हरिभद्रसूरि ने अर्हत् बनने की एक ही शर्त रखी है कि जो भव्यात्मा विश्व के प्राणियों को तारने की महाकरुणा-भावना से ओत-प्रोत हो, वही अर्हत् बन सकता है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि जिस आत्मा ने अनेक जन्मों में सद्गुणों की आराधना करके शुभ संस्कारों का - अपरिमित पुण्य राशिका - संचय किया हो तथा 'समस्त जीवों को मोक्षमार्ग के यात्री बनाऊँ, ऐसी अनुप्रेक्षा द्वारा प्राणिमात्र का
१ इमेहि य णं वीसाएहि य कारणेहि आसेविय बहुलीकएहि तित्थयरनामगोत्त कम्मं निव्वत्तिसु तं जहा
अरहंत १, सिद्ध२, पवयण ३, गुरु४, थेर५, बहुस्सुए ६, तवस्सीसु७ । वच्छलया य तेसि, अभिक्खणाणोओगे य ॥१॥ आवस्सए य११, सीलव्वए निरइयारं १२ । च्चियाए१५, वेयावच्चे१६, समाही य१७||२|| भत्ती १६, पवयणे तित्थयरत्त
दंसण, विणए १०, खणलव १३, तव१४ अपुव्वणाणगहणे १८, हि कारणेह
पभावणया २० ।
लहइ जीवो 11311 - समवायांग, समवाय २०