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अरिहन्तदेव स्वरूप : ३५
कल्याण करने की अत्यन्त उच्च भावना की अत्यन्त गहराई से अनुचिन्तन किया हो, वही आत्मा भविष्य में समस्त गुणों के भण्डार-सदृश अर्हत्पद को प्राप्त कर सकता है।
शास्त्रों में तीर्थंकर-पद की प्राप्ति के लिए बीस स्थान-कारण बताये हैं । जो जीव इन बीस स्थानकों (कारणों) में से किसी भी एक-दो या अधिक यावत् बीस स्थानकों की पहले के तीसरे भव में यथोचित विशिष्ट तथा अपूर्व आराधना करता है, वह तीर्थंकरनामकर्म को निकाचित रूप से उपार्जित कर लेता है; वह आत्मा उस भव को अपेक्षा से आगामी तीसरे भव में अर्हत्तीर्थंकर पद को प्राप्त कर लेता है।
इन बीस स्थानकों का विशेष विश्लेषण इस प्रकार है
(१) अरिहन्त-भक्ति-जिन आत्माओं ने कर्मकलंक दूर कर दिया है और केवलज्ञान-केवलदर्शन से युक्त होकर सत्यमार्ग का उपदेश देते हैं। इतना ही नहीं, प्राणिमात्र के प्रति जिनकी वत्सलता, करुणा और दया है; षटकाय के जीवों के साथ जिनकी मैत्री है तथा जो इन्द्रों, देवों और चक्रवतियों आदि के द्वारा पूज्य हैं, सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी, वीतराग अर्हन्त देवों का अन्तःकरण से गुणकीर्तन करना तथा उनके सद्गुणों के प्रति अनुराग करना, उनके गुणों का अनुकरण करके अपनी आत्मा को गुणों से विभूषित करने का प्रयत्न करते रहना, अपने हृदय में अर्हन्तप्रभु को बसा लेना, अर्थात्-अपने हृदय में प्रभु के नाम की सतत रटन रहे ताकि कदापि प्रभु-नाम विस्मृत न हो; अहन्तशब्द के साथ हो अपने श्वासोच्छवास को जोड़े रखना, प्रत्येक श्वास के साथ अर्हन् शब्द की ध्वनि निकलती रहे साथ ही अरिहन्त भगवान की आज्ञाओं का पालन करते रहना; यही अरिहन्त प्रभु की भक्ति है ।।
जब इस प्रकार अरिहन्त प्रभु के नाम से प्रीति लग जाती है, तब वह आत्मा उत्कृष्ट भावना का रसायन आने से तीर्थंकर-गोत्रनामकर्म का उपाजन कर लेता है, जिसके प्रभाव से स्वयं संसार-सागर को पार करता है और अनेक भव्य प्राणियों को संसार-सागर से पार कर देता है तथा उसके द्वारा उपदिष्ट एवं निर्दिष्ट धर्म-पथ पर चलकर अनेक भव्यजीव संसार-सागर से पार होते रहते हैं।
(२) सिद्ध-भक्ति-जो आत्मा आठ कर्मों से तथा जन्म, जरा, मृत्यु, भय, रोग, शोक, राग-द्वप आ द से सवथा रहित हैं, अजर-अमर-शाश्वत सिद्ध पद को प्राप्त कर चुके हैं ! सिद्ध-बुद्ध-मुक्त, निरंजन-निर्विकार एवं अशरीरी हो चुके हैं, वे सिद्ध हैं । वे अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य