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३६ : जैन तत्त्वकलिका
(शक्ति), क्षायिक सम्यक्त्व, अमूर्त्तिकत्व, अगोत्र, अगुरुलघु और निरायु इत्यादि अनेक गुणों के धारक हैं । वे अपने अनन्तज्ञान- दर्शन द्वारा सर्व लोकालोक को हस्तामलकवत् देख रहे हैं । उनको अनन्त आत्मिक सुख की प्राप्ति हो गई है, अतः सदैव आत्मिक सुख में निमग्न रहते हैं । यदि तीनों कालों के देवों के सुखसमूह को एकत्रित किया जाए तो वह सुख उन मुक्तात्माओं के सुख का अनन्तवाँ अंश भी नहीं है ।
ऐसे सिद्धप्रभु के गुणों के प्रति अनुराग करने से तथा अन्तःकरण से अहर्निश उनका गुणोत्कीर्तन करने से जीव तीर्थंकर गोत्रनामकर्म का उपार्जन करता है ।
(३) प्रवचन- भक्ति - भगवान् के उपदेशों के संग्रह का नाम प्रवचन है । उस द्वादशांगी रूप प्रवचन की - अथवा जिनवाणी के रूप में ज्ञाननिधि की भक्ति करना, उसके प्रति श्रद्धा-भक्ति एवं बहुमान रखना, उसका वाचना आदि पाँच प्रकार से स्वाध्याय करना, श्रद्धाभक्ति आदर-सत्कारपूर्वक अध्ययन अध्यापन करना, प्रवचन की स्वयं आशातना न करना, जो अश्रद्धालु या नास्तिक लोग सर्वज्ञोक्त उपदेश की आशातना करते हैं, उन्हें हितशिक्षा देकर आशातना करने से रोकना तथा जिन-प्रवचन के सदैव गुणोत्कीर्तन करते रहना, यथा- - 'देवानुप्रिय सज्जनो ! यही परमार्थ है, शेष सब सांसारिक कार्यसाधक हैं, अनर्थोत्पादक हैं।' इस प्रकार प्रवचन -भक्ति करने से आत्मा तीर्थंकरगोत्र- नामकर्म का उपार्जन कर लेता है ।
प्रवचन का दूसरा अर्थ' 'संघ' भी है। तीर्थंकरों द्वारा स्थापित- - रचित धर्मसंघ (साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ संघ ) एवं साधर्मिकों के प्रति उसी प्रकार स्नेहभाव वात्सल्य रखना जैसे गाय बछड़े पर स्नेह रखती है | संघ का कोई भी सदस्य संकटग्रस्त, पीड़ित, दुःखित, विपद्ग्रस्त, व्याधिग्रस्त हो अथवा धर्म से पतित या अस्थिर हो रहा हो तो उसे यथाशक्ति सहयोग देकर संकटमुक्त, रोगमुक्त, धर्म में स्थिर एवं दृढ़ करना; संघ की भक्ति करना, आदि ये सब संघवात्सल्य में रूप हैं । इससे भी जीव तीर्थंकरगोत्रनामकर्म का उपार्जन कर लेता है ।
(४) गुरु या आचार्य की भक्ति - जिनेश्वर द्वारा प्रतिपादित धर्म के अनुरूप श्रमणधर्मयुक्त जीवन व्यतीत करने वाले स्वपरकल्याण- साधक, षट्काय प्रतिपालक, प्राणिमात्र के हितैषी, महाव्रतधारी, धीर, भिक्षामात्रजीवी,