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३० : जैन तत्त्वकलिका
कोई कह सकता है कि अन्तराय कर्म के नाश से उत्पन्न शक्तियों का लाभ तीर्थंकर को क्या हुआ ? इस शंका का समाधान यह है कि उनकी ये पाँचों शक्तियाँ आत्मभावों में रमण करने में, ब्रह्मचर्य में, सर्वभूत वात्सल्य एवं आत्मवत् सर्वभूतेषु आदि में लगती हैं । जैसे किसी व्यक्ति को लक्ष्मी की प्राप्ति हुई, तो क्या उसे मदिरापान, मांसभक्षण, द्य त कर्म, वेश्यागमन आदि में लगाने से उसने प्राप्त लक्ष्मी का लाभ लिया कहा जा सकता है ? कदापि नहीं । अतः तीर्थंकर अनन्त शक्तियों के प्रकट हो जाने पर भी सदैव निर्विकार अवस्था में रहते हैं ।
(६) हास्य - तीर्थंकर भगवान हास्यरूप दोष से रहित होते हैं । हास्य चार कारणों से उत्पन्न होता है । यथा - ( १ ) हास्यपूर्वक (हँसी मजाक में) बात करने से, (२) हास्यकारी बात सुनने से, (३) हँसते हुए को देखने से और (४) हास्योत्पादक बात का स्मरण करने से । निष्कर्ष यह है कि हास्य अपूर्व बात के कारण उत्पन्न होता है और तीर्थंकर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हैं । ऐसी स्थिति में उनके लिए अपूर्व बात कोई हो ही नहीं सकती; क्योंकि वे तो तीनों कालों और तीनों लोकों की सभी बातें प्रत्यक्ष देखते जानते हैं । अतः अर्हन्त प्रभु हास्यरूप दोष से सर्वथा रहित होते हैं ।
(७) रति- इष्टवस्तु की प्राप्ति से होने वाली खुशी या प्रीति रति कहलाती है । यह मोहनीय कर्म के उदय से होती है । तीर्थंकर अवेदी, अकषायी, वीतराग होने से उनमें मोहनीय कर्म का सर्वथा अभाव होता है । अतः वे तिलमात्र भी रतिदोष का अनुभव नहीं करते ।
(८) अरति - अनिष्ट और अमनोज्ञ वस्तु के संयोग से होने वाली अप्रीति, अरुचि, अप्रसन्नता या द्वेष भावना अरति कहलाती है । अरिहन्त भगवान् समभावी होने से किसी भी दुःखप्रद संयोग या अनिष्ट पदार्थ के संयोग से उन्हें अप्रीति या द्वेष भावना नहीं होती । अतः वे अरतिदोष से सर्वथा रहित हैं ।
(९) भीति - भगवान् सब प्रकार के भयों से मुक्त होते हैं । भय सात प्रकार के हैं - ( १ ) इहलोक भय, (२) परलोक भय, (३) आदान (अत्राण) भय, (४) अकस्मात्भय, (५) आजीविकाभय, (६) अपयश - भय और (७)
मरण भय ।
भय उत्पन्न होता है - मोहनीय कर्म के भगवान् तो अनन्त शक्तिमान - हैं और मोहनीय भदोष से सर्वथा रहित हैं ।
उदय से अल्पसत्व वालों को । कर्म रहित हैं । अतः भगवान्