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अरिहन्तदेव स्वरूप : २६
प्रस्तुत में तीर्थकर को जो अठारह दोषों से रहित बतलाया है, वे तो उपलक्षणमात्र हैं। इन दोषों का अभाव तो अरिहन्त को बाह्य पहिचान है, इन्हीं दोषों के अभाव से उनमें समस्त दोषों का अभाव समझना चाहिए। अठारह दोष रहितता
तीर्थंकर भगवान् में निम्नलिखित अठारह दोषों' का अभाव होता है
(१-५) पाँच अन्तराय-तीर्थंकर भगवान् के अन्तराय कर्म का क्षय हो जाने से उनमें दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ये पाँच दोष नहीं रहते।
दानान्तराय कर्म के क्षय हो जाने से तीर्थंकर अरिहन्तप्रभु में दान देने की अनन्त शक्ति उत्पन्न हो जाती है। वे चाहें तो विश्व भर का दान कर सकते हैं। इसी प्रकार लाभान्तराय के क्षय से लाभ की अनन्त शक्ति उत्पन्न हो जाती है । वीर्यान्तराय के क्षय से अनन्त आत्मिक शक्ति उत्पन हो जाती है । भोगान्तराय एवं उपभोगान्तराय कर्म के क्षय से भोग्य (एक बार भोगने योग्य) और उपभोग्य (बार-बार भोगने योग्य) पदार्थों को भोगने की अनन्त शक्ति उत्पन्न हो जाती है। ___तात्पर्य यह है कि अन्तराय कर्म की पाँच मूल प्रकृतियों के क्षय करने से पाँचों ही अनुपम शक्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। यह बात अवश्य है कि तीर्थकरों के मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने के कारण अन्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न ये शक्तियाँ विकार भाव को प्राप्त नहीं होती। अतः अनन्त शक्ति प्राप्त तीर्थकर अपनी शक्ति का दुरुपयोग कभी नहीं करते ।
१ (क) अन्तराया दान-लाभ-वीर्य भोगोपभोगाः ।
हास्यो रत्यरती भीतिर्जुगुप्सा शोक एव च ॥१॥ कामो मिथ्यात्वमज्ञानं निद्रा चाविरतिस्तथा ।
रागो द्वेषश्च नो दोषास्तेषामष्टादशाऽप्यमी ॥२॥ (ख) जैनतत्त्व प्रकाश आदि ग्रन्थों में तीर्थंकर अरिहन्त भगवान् को निम्नोक्त
१८ दोषों से रहित बताया गया है-(१)मिथ्यात्व, (२) अज्ञान, (३) मद, (४) क्रोध, (५) मायो, (६) लोभ, (७) रति, (८) अरति, (६) निद्रा, (१०) शोक, (११) अलीक, (१२) चौर्य, (१३) मत्सरता, (१४) भय, (१५) हिंसा, (१६) प्रेय (प्रेम), (१७) कोड़ा और (१८) हास्य ।।
-जनतत्त्वप्रकाश पृ० १६ से १८ तक