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२८ : जैन तत्त्वकलिका
आचार्य समन्तभद्र ने देवागमस्तोत्र (अष्टसहस्री) में तीर्थंकर को चमत्कारों और अतिशयों के गज से नापने से असहमति प्रकट की और उन्हें चमत्कारों के आवरण से निकालकर यथार्थवाद के आलोक में देखने का प्रयत्न किया। उनका प्रसिद्ध श्लोक है
"देवागम-नभोयान-चामरादि विभूतयः।
मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ॥"१ "भगवन् ! देवताओं का आगमन, आकाश-विहार, छत्र-चामर आदि वैभव ऐन्द्रजालिक जादूगरों के भी हो सकते हैं। इन कारणों से आप हमारे लिए महान् (महनीय-पूजनीय) नहीं हो सकते । आप इसलिए महान् हैं कि आपकी वाणी ने वस्तु के यथार्थ स्वरूप (सत्य) को अनावृत किया था।"
___आचार्य हेमचन्द्र ने भी इसी यथार्थवाद की धारा का अवलम्बन लिया। उन्होंने कहा- "आपके चरणकमल में इन्द्र लोटते थे, इस बात का दूसरे दार्शनिक खण्डन कर सकते हैं या अपने इष्टदेव को भी इन्द्रपूजित कह सकते हैं, किन्तु आपने जिन अकाट्य सिद्धान्तों या वस्तुतत्त्व का यथार्थ निरूपण किया. उसका वे कैसे निराकरण कर सकते हैं ?"२
, जैन आगमों में तथा प्राचीन आचार्यों द्वारा इसका समाधान दूसरे पहलू से भी किया गया। उनके कथन का फलितार्थ यह था कि अतिशयों आदि से तीर्थंकर भगवान् की पहचान करने में आनाकानी या संकोच हो तो दसरी कसौटी है-अठारह दोषों से रहित होने की। वास्तविकता यह है कि चार घनघाती कर्मों का नाश होने पर अर्हन्त-अवस्था प्रकट होती है। घातिकर्मों से रहित होने पर अर्हन्त भगवन्तों में किसी प्रकार का विकार या दोष नहीं रह सकता । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, ये चार आत्मगुणघाती कर्म ही विकारों या दोषों को उत्पन्न करते हैं। इन चारों घातिकर्मों का नाश हो जाता है तो आत्मा विभाव परिणति का सर्वथा त्याग करके स्वभाव परिणति में आ जाताहै। ऐसी स्थिति में वीतराग आत्मा निर्दोष, निर्विकार एवं निष्कलंक हो जाता है। अतएव तीर्थंकर-वास्तविक तीर्थंकर या अर्हन्त वही है, जो समस्त दोषों से रहित- अतीत हो ।
१ देवागमस्तोत्र, श्लोक-१ २ "क्षिप्येत वान्यैः सदृशीक्रियेत वा, तवांघ्रिपीठे लुठनं सुरेशितुः । . इदं यथावस्थित वस्तुदेशनं, परैः कथंकारमपाकरिष्यते ॥
- अन्ययोग-व्यवच्छेदद्वात्रिंशिका १२