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अरिहन्तदेव स्वरूप : २७
- भगवान् के इन और पूर्वोक्त किञ्चित् गुणगणों का वर्णन किया गया है। वस्तुतः देखा जाए तो तीर्थंकर भगवान् आत्म-विकास की पराकाष्ठा को, परमात्मदशा को तथा सम्पूर्ण विशुद्ध-चेतनास्वभाव को प्राप्त कर चुकने के कारण अनन्त-अनन्त गुणों के धारक हैं। उनके समस्त गुणों का वर्णन या कथन नितांत असंभव है। तीर्थंकरों का लक्षण : अष्टादशदोषरहितता
- प्राचीनकाल में अनेक विशिष्टगुणसम्पन्न या बौद्धिकप्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे, जो वाक्पटु एवं धर्मोपदेशकुशल थे। वे वाक्कौशल अथवा हस्त-कौशल, सम्मोहन अथवा मंत्र-तंत्र-ज्योतिष आदि विद्याओं के प्रयोग से चमत्कार बताकर जिन, तीर्थकर या अर्हत् कहलाने लगे थे।
__ भगवान् महावीर के युग में ही श्रमणों के चालीस से अधिक सम्प्रदाय थे। जिनमें से छह प्रसिद्ध श्रमणसम्प्रदायों का उल्लेख बौद्ध साहित्यमें भी आता है। वे क्रमशः इस प्रकार थे
१. अक्रियावादं का प्रवतक-पूरणकाश्यप । . २. नियतिवाद का प्रवर्तक-मक्खली गोशाल (आजीवक आचार्य)। .३. उच्छेदवाद का आचाय-अजितकेशकम्बली। ४. अन्योऽन्यवाद का आचार्य-पकुद्ध कात्यायन । ५. चातुर्याम-संवरवाद के प्ररूपक-निग्रन्थ ज्ञातपुत्र।
६. विक्ष प(संशय)वाद का आचार्य-संजयवेलठ्ठिपुत्र । । इनमें से प्रायः सभी अपने अनुयायियों द्वारा तीर्थकर' या 'जिन' अथवा 'अर्हत्' कहे जाते थे। बुद्ध भी जिन एवं अर्हत् कहलाते थे । गोशालक तथा ज़माली भी अपने आपको जिन या तीर्थंकर कहते थे। सभी के भक्तों और अनुयायियों ने अपने-अपने आराध्य पुरुष के जीवन के साथ देवों का आगमन, अमुक-अमक सिद्धियों की प्राप्ति, मंत्र-तंत्रादि से आकाश में उड़ना, पानी पर चलना, तथा अन्य वैभवपूर्ण आडम्बरों से जनता की भीड़ इकट्ठी कर लेना आदि कुछ न कुछ चमत्कार जोड़ दिये थे। इस कारण वास्तविक तीर्थंकर जिन या अर्हत् की परीक्षा सहसा नहीं हो पाती थी। चमत्कारों और आडम्बरों के नीचे तीर्थंकरत्व या आहेत्पद दब गया था। .
उपर्युक्त पंक्तियों में जो बारह मुख्य गुण अरिहन्त के बताये हैं, इनमें से अधिकांश तो अतिशय हैं, बाकी रहे अनन्त-ज्ञानादि; इनकी अचानक कोई भी पहिचान नहीं हो सकती, क्योंकि ये आत्मिक विभूतियाँ हैं, भौतिक नहीं। इसीलिए
१ विसुद्धिमग्गो