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२६ : जैन तत्त्वकलिका
बोधिद, पुरुषोत्तम, वीतराग एवं आप्त (जीवों के हितैषी, हितोपदेष्ट) आदि ।'
भक्तामरस्तोत्र में भी स्तुति करते हुए उन्हें निम्नोक्त शब्दों (विशेषणों) से सम्बोधित किया गया है-अव्यय (चयापचय को प्राप्त न होने वाले, सर्वकाल में स्थिर), विभु (ज्ञान से त्रिलोकव्यापी, अथवा परम ऐश्वर्य से सशोभित या इन्द्रों के स्वामी), अचिन्त्य (आध्यात्मिक पुरुषों द्वारा अचिन्तनीय), आद्य (पंचपरमेष्ठियों में प्रथम या सामान्य केवलीजनों में मुख्य), ब्रह्म (केवलज्ञान या निर्वाण पाने वाले), ईश्वर (सकल सुरासुरनरनायकों पर शासन करने में समर्थ), अनन्त (अनन्तचतुष्टय धारक, अनन्तगुण सम्पन्न), अनंगकेतु (कामदेव के लिए शत्र समान), योगीश्वर, विदितयोग (योग जिनको भली-भाँति ज्ञात हो चुका है), अनेक (गुण-पर्याय की अपेक्षा से अनेक), एक (अद्वितीय या आर्हन्त्य की अपेक्षा से एक), ज्ञानस्वरूप (सम्पूर्ण ज्ञानमय), अमल (मलों-कर्ममलों-दोषों से, विकारों से सर्वथा रहित)।
इस प्रकार अन्य अनेक नामों एवं विशेषणों से तीर्थंकर भगवान् की स्तुति की जाती है। जिनसहस्रनाम स्तोत्र में जिनेन्द्र भगवान् के १००८ नामों का उल्लेख किया गया है । अरिहन्तों (तीर्थंकरों) के मुख्य १२ गुण
तीर्थंकर भगवान् निम्नलिखित मुख्य १२ गुणों से युक्त होते हैं- .
(१) अनन्तज्ञान, (२) अनन्तदर्शन, (३) अनन्तचारित्र, (४) अनन्ततप, (५) अनन्तबलवीर्य, (६) अनन्तक्षायिक सम्यक्त्व, (७) वज्रऋषभनाराचसंहनन, (८) समचतुरस्रसंस्थान, (९) चौंतीस अतिशय, (१०). पैंतीस वाणी के अतिशय (गुण), (११) एक हजार आठ लक्षण और (१२) चौंसठ इन्द्रों के पज्य ।
१ अर्हन् जिनः पारगतस्त्रिकालवित क्षीणाष्टकर्मा परमेष्ठ्यधीश्वरः ।
शम्भुः स्वयम्भूर्भगवान् जगत्प्रभुः तीर्थंकरस्तीर्थकरो जिनेश्वरः ॥१॥ स्याद्वाद्यभयद-सार्वाः सर्वज्ञः सर्वदशि-केवलिनी।
देवाधिदेव-बोधिद-पुरुषोत्तम-वीतरागाऽऽप्ताः ॥२॥-अभिधान० देवाधिदेवकाण्ड २ त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्य, ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनंगकेतुम् । .... योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेक, ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥
-भक्तामर स्तोत्र श्लो० २४ ३ अपायापगमातिशय और वागतिशय का वर्णन पहले किया जा चुका है। ४ अन्यत्र अनन्तज्ञानादि चार और पूर्वोक्त अष्टमहाप्रातिहार्य मिलकर तीर्थंकरों के . १२ गुण बताये गये हैं।