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अरिहन्तदेव स्वरूप : २५ धर्मदाता-आत्मोन्नति से गिरते हुए जीवों को धारण करके रखने वाले श्र त-चारित्र रूप धर्म के दाता।
धर्मदेशक-धर्म के यथार्थ स्वरूप के उपदेशक ।
धर्मनायक-चतुर्विध संघ रूप धर्म के रक्षक, प्रवर्तक और नेता (अगुआ)।
धर्मसारथी-चतुर्विध तीर्थ को धर्मरूप रथ में बिठाकर उन्मार्ग से बचाकर सन्मार्ग से मोक्ष नगर में ले जाने वाले धर्मसारथी।
धर्मवरचातरन्तचक्रवर्ती-धर्म के पूर्ण आचरण द्वारा चारों गतियों (जन्म-मरण) का अन्त करने वाले धर्मचक्रवर्ती।
__ अप्रतिहतज्ञान-दर्शनधर-अप्रतिहत (निराबाध) ज्ञान-दर्शन के धारक।
विवतछम-छमस्थ (सराग) अवस्था से निवृत्तं । आत्मप्रदेशों को आच्छादन करने वाले घाती कर्मों से रहित ।
जिन-राग-द्वषादि अंतरंग शत्रुओं के स्वयं विजेता।
जायक-अन्यजनों (अपने अनुयायियों) को अन्तरंग शत्रुओं से जिताने वाले; जीतने की युक्ति बताने वाले।
तीर्ण-स्वयं संसार समुद्र से पारंगत-तिरे हए।
तारक-दूसरों को सन्मार्गोपदेश द्वारा संसार समुद्र से पार उतारने वाले।
बुद्ध-स्वयं समस्त तत्त्वों का सम्पूर्ण बोध प्राप्त । , बोधक-अन्य (भव्य) जीवों को बोध प्राप्त करने वाले। मक्त-राग-द्वेष के कारण उत्पन्न होने वाले कर्मबन्धनों से मुक्त । मोचक-संसारी प्राणियों को कर्म जंजाल से मुक्त कराने वाले।
सर्वज्ञ-सर्वदर्शी-समस्त पदार्थों को अपने पूर्ण ज्ञान से जानने वाले तथा देखने के स्वभाव वाले, सर्वज्ञाता-सर्वद्रष्टा।
..अभिधान चिन्तामणि में भी तीर्थंकरों के अनेक नामों (विशेषणों) का उल्लेख मिलता है। जैसे-अर्हन्, जिन, पारगत (संसार समुद्र के पारंगत), त्रिकालवित्, क्षीणाष्टकर्मा (ज्ञानावरणीयादि अष्टकर्मों का क्षय करने वाले), परमेष्ठी (परम-उत्कृष्ट ज्ञान-दर्शन-चारित्र में स्थित), अधीश्वर (जगत् के जीवों के आश्रयभूत), शम्भु (सनातन सुखसमुदाय में रहने वाले), स्वयम्भू (अपने भव्यत्वादि की सामग्री का परिपाक होने से दूसरों के उपदेशक बिना स्वयं प्रबुद्ध होने वाले), भगवान्, जगत्प्रभु, तीर्थकर, स्याद्वादी, अभयद, सार्व (सर्व प्राणियों के लिए हितकारी), सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, केवली, देवाधिदेव,