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अरिहन्तदेव स्वरूप : २३
(२) अरिहन्त का रूप अतिशय सुन्दर होता है । यदि समस्त देव मिलकर अपना रूप अँगूठे जितने प्रमाण में संगृहीत करें तो भी वे अरिहन्त भगवान् के चरण के अँगूठे की समानता नहीं कर सकते । अथवा भगवान् में सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप धर्म अथवा सूत्र चारित्र रूप धर्म, अथवा दानशीलतपोभाव रूप धर्म सर्वोत्कृष्ट रूप में विकसित होता है ।
(३) राग-द्वेष, परीषह एवं उपसर्गों का निवारण करने के कारण अरिहन्तों का यश सर्वत्र फैलता है, यह उनके यश की परिपूर्णता है ।
(४) उनमें केवल ज्ञानादि श्री (लक्ष्मी) की भी परिपूर्णता है ।
(५) वे संसार, शरीर और शरीर सम्बन्धित वस्तुओं के प्रति तथा इन्द्रियादि विषयक भोगोपभोगों के प्रति सर्वथा विरक्त, अनासक्त रहते हैं ।
(६) तीर्थंकर के चाहे जैसे और चाहे जितने घोर और कठोर कर्म हों, उसी भव में पूर्ण पुरुषार्थ द्वारा उनका पूर्णतया क्षय करके मोक्ष के अधिकारी बनते हैं, यह उनके मोक्षपुरुषार्थ ( प्रयत्न) की पूर्णता है ।
आदिकर - अपने - अपने शासन (संघ) की अपेक्षा से श्रुत चारित्ररूप धर्म की आदि करने वाले ।
तीर्थंकर - धर्मतीर्थ और चतुविध श्रमण संघ की स्थापना करने वाले । स्वयंसम्बुद्ध — गुरु आदि किसी के उपदेश के बिना स्वयमेव प्रतिबोध को प्राप्त होकर स्वयमेव प्रव्रजित होते हैं ।
पुरिसुत्तमाणं - एक हजार आठ उत्तम लक्षण तथा अतुल बल, वीर्य, सत्त्व और पराक्रम आदि गुणों से सम्पन्न होने से भगवान् समस्त पुरुषों में परमोत्तम पुरुष होते हैं ।
तीर्थंकर मानवरूप में अवश्य जन्म लेते हैं, किन्तु वे सामान्य कोटि के मानव नहीं होते, वे महामानव या असाधारण मानव या नित्शे की भाषा में सुपरमेन (Superman ) होते हैं ।
सुप्रसिद्ध योगी अरविन्द घोष ने कहा था- इस जगत् में असाधारण कार्य करने के लिए असाधारण आत्मबल के साथ शरीर भी असाधारण कोटि का होना चाहिए ।
जैन शास्त्रों में बताया है कि जो पुरुष समस्त भूमण्डल को जीतकर चक्रवर्ती पद प्राप्त करते हैं, उनमें जितना बल, वीर्य, ऐश्वर्य, सत्त्व और पराक्रम होता है, उससे अनन्तगुणा बल, वीर्य, ऐश्वर्य सत्त्व और पराक्रम तीर्थंकरों में होता है । उनके शरीर की आकृति समानुपाती और रचना अति