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२२ : जैन तत्वकलिका
द्वादशांगी श्रुत को भी 'तीर्थ' कहते हैं । उक्त द्वादशांगी रूप तीर्थ के प्ररूपक या प्रवचनकार होने से भी वे तीर्थंकर कहलाते हैं।' तीर्थकर शब्द की महिमा
तीर्थकरत्व में अर्हन्तों की विशिष्ट महत्ता रही हुई है। इस जगत् में स्वोपकार करने वाले तो अनेक मिलेंगे, परन्तु स्वोपकार के साथ परोपकार करने वाले विरले ही होते हैं । परोपकारकर्ताओं में भी अन्न-पानादि के दान देने वाले तो बहुत होते हैं, किन्तु सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के दानकर्ता तो विरलातिविरल होते हैं। तीर्थंकर तीर्थस्थापना द्वारा इस विरलातिविरल कार्य का सम्पादन करते हैं और जगत् के सभी जीवों पर उपकार की वर्षा करते हैं । इस जगत् को मंगलमय, कल्याणकारी, श्रयःसाधक धर्म का पवित्र प्रकाश उनके द्वारा ही प्राप्त होता है। इसलिए विश्वः पर उनका उपकार सबसे महान् है। तीर्थकर देव के अनेक विशेषण
तीर्थंकर देव की इसी परमोपकारिता को प्रकट करने वाले अनेक विशेषण शक्रस्तव (नमोत्थुणं) के पाठ में प्रयुक्त किये गए हैं। वे क्रमशः इस प्रकार हैं
अरिहन्त-आत्मगुणविघातक चार घाती कर्मों को तथा कर्मोत्पादक राग-द्वषादिरूप शत्रुओं को नष्ट करने वाले।
भगवान-तीर्थंकर या अरिहन्त को भगवान् कहने का कारण यह है कि वे 'भग' वाले होते हैं। युग की भाषा में कहें तो, वे लोकोत्तर सौभाग्य सम्पन्न होते हैं। 'भग' शब्द के छह विशिष्ट अर्थ होते हैं-समग्र ऐश्वर्य, सर्वांगीण रूप अथवा धर्म, सर्वव्यापी यश, समय ज्ञानादि श्रीसम्पन्नता, अखण्ड वैराग्य और मोक्ष पुरुषार्थ की पूर्णता । ३
(१) देवेन्द्र भक्तिभाव से तीर्थंकर के चरणों का स्पर्श करते हैं और शुभानुबन्धी अष्ट महाप्रतिहार्यों द्वारा उनकी भक्ति करते हैं, यह ऐश्वर्य की पूर्णता है। १ (क) तीर्यते संसारसमुद्रोऽनेनेति तीर्थ, प्रवचनाधारश्चतुर्विधः संघ: तत्करोतीति
तीर्थंकर। - - (ख) 'धम्मतित्थयरे जिणे ।'
. -आवश्यक सूत्र २ नमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं आइगराणं तित्थयराणं सयंसंबुद्धाणं,
पुरिसुत्तमांणं....."सव्वन्नूणं सव्वदरिसिणं' इत्यादि । -शक्रस्तव पाठ ३ ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य (रूपस्य) यशसः श्रियः ।
वैराग्यस्याथ मोक्षस्य (प्रयत्नस्य) षण्णां भग इतीजना॥