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________________ २० : जैन तत्त्वकलिका . तात्पर्य यह है कि जो इन आन्तरिक शत्रुओं को जीत लेते हैं । वे 'जिन' कहलाते हैं। भगवदगीता में भी इसी तथ्य को उजागर किया गया है_ 'अपनी आत्मा का उद्धार आत्मा (स्वयं) से ही होता है । अतः आत्मा को पतन की ओर न ले जाए। आत्मा ही आत्मा का बन्धु है और आत्मा ही आत्मा का शत्रु है। जिसने अपने आत्मा (मन एवं इन्द्रिय-समूह) को जीत लिया, उसका आत्मा बन्धु है; परन्तु जिसने अपने आत्मा को नहीं जीता उसका आत्मा ही शत्रु के रूप में शत्रुता का बर्ताव करता है। सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख तथा मान-अपमान में जिसने अपने आत्मा को जीता है, ऐसे अतिशान्त पुरुष का आत्मा परमात्मा बनता है। निष्कर्ष यह है कि राग-द्वष, मोह का सर्वथा. नाश करके वीतराग या निर्मोही अवस्था प्राप्त करना और समस्त दोषों से रहित होकर आत्मभाव में स्थित रहना और परम शान्त दशा का अनुभव करना-जिन-अवस्था का सच्चा रहस्य है। ____योगवाशिष्ठ में श्रीराम के मुख से जिनावस्था प्राप्त करने की भावना प्रकट की गई है। . 'मैं राम नहीं, मुझे किसी प्रकार की इच्छा नहीं, न हो अब पदार्थों में मेरा मन रमता है। जैसे जिन अपने आत्मा में शान्तभाव से स्थित रहते हैं, वैसे मैं भी शान्तभाव से रहना चाहता हूँ।"२ भारत में जैन, बौद्ध, वैदिक तीनों धर्मों की धाराओं में 'जिन' पद को गौरवपूर्ण मनाकर अपने उपास्य देव को 'जिन' कहलाने में गौरव समझा जाता था। १ उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।। बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मवात्मना जितः । अनात्मनस्तु शत्रु त्वे वर्तेतात्मैव शत्र वत् ॥ जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः । शीतोष्ण-सुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥ .. -भगवद्गीता, अ० १, श्लो० ५-६-७ २ नाऽहं रामो, न मे वाञ्छा, भावेष न च मे मनः । - शान्त आस्थातुमिच्छामि, स्वात्मन्येव जिनोयथा ।। - -योगवाशिष्ठ वैराग्यप्रकरण
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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