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________________ अरिहन्तदेव स्वरूप : १९ . 'जिन' शब्द का वास्तविक रहस्य क्या है ? इसे जानना चाहिए । 'जिन' शब्द 'जि' धातु से बना है। जि 'धातू' जय अर्थ में है। अतः 'जिन' शब्द का अर्थ होता है-जीतने वाला (Victorious)। किसे जीतने वाला? यह यहाँ 'गुप्त' एवं 'अध्याहृत' है। जैनागमों के अवलोकन से इसका रहस्य ज्ञात हो जाता है। भगवान् महावीर की अन्तिम देशना के रूप में माने जाने वाले प्रसिद्ध शास्त्र उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है जो दुर्जय संग्राम में सहस्र-सहस्र योद्धाओं-शत्रुओं को जीत लेता है, (उसे हम वास्तविक जय नहीं मानते) एक आत्मा को जीतना ही परम जय है। हे पुरुष ! तू आत्मा के साथ हो युद्ध कर, बाह्य शत्रुओं के साथ युद्ध करने रो तुझे क्या लाभ है ? जो आत्मा द्वारा आत्मा को जीतता है, वही सच्चा सुख प्राप्त करता है।' इन उद्गारों से यह निश्चित होता है कि यहाँ बाह्य शत्रुओं के साथ लड़कर उन्हें जीतने की बात नहीं, किन्तु आन्तरिक शत्रुओं के साथ जूझकर उन्हें जीतने की बात है। यह युद्ध कैसे करना ? यह भी यहाँ बता दिया है कि आत्मा के द्वारा आत्मा को जीतना। इसका अर्थ हुआ-अपना आत्मबल, संकल्प-शक्ति और वीर्योल्लास बढ़ाकर अन्तःकरण में स्थित महान् शत्रुओं पर नियंत्रण करना। जैन धर्म के अनुसार अन्तःकरण के प्रबल शत्रु हैं-राग, द्वष और मोह। इन्हीं के कारण क्रोध, मान, माया, लोभ, काम, तष्णा आदि दुष्टवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हीं के कारण कर्मबन्धन होता है; जिनके फलस्वरूप नाना गतियों और योनियों में परिभ्रमण करना और जन्म-मरणादि दुःख सहना होता है। वैसे देखा जाय तो दुष्कृत्यों या दुत्तियों में प्रवृत्त आत्मा (मन आदि इन्द्रिय समूह) भो आत्मा का शत्रु बन जाता है । इस प्रकार आन्तरिक शत्रुओं की गणना अनेक प्रकार से होती है। १ जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जए । एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ ॥ अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ। अप्पाणमेव अप्पाणं जइत्ता सुहमेहए ॥ -उत्तराभ्ययन, अ०६, गा० ३४-३५ २ अप्पामित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय सुप्पट्ठिओ । -उत्तराध्ययन, अ० २०, गा० ३७
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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