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१० : जैन तत्त्वकलिका
यत्र यत्र समये योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया ! वीतदोषकलुषः स चेद् एक एव भगवन्नमोऽस्तु ते ॥ २॥ '
- संसार-बीज के अंकुर के जनक रागद्वेषादि जिसके क्षय हो चुके हैं, वह चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, हर हो या जिन हो, उसे मेरा नमस्कार है । जिस-जिस समय में जो-जो, जिस किसी भी नाम से हो गया हो, यदि रागादि दोषों की कलुषता से अतीत हो चुका है तो (मेरे लिए) वह एक ही है, हे भगवन् ! तुम्हें मेरा नमस्कार हो ।
जैन धर्म गुणपूजक है, एकान्त व्यक्तिपूजक नहीं । इसी कारण 'नमो अरिहंताणं' में गुणवाचक 'अरिहंताणं' पद से उन सब अरिहन्तों को नमस्कार है, जिन्होंने रागद्वेषादि आन्तरिक शत्रुओं का नाश कर दिया हो । नमस्कर्ता की दृष्टि से इस पद में शब्द रूप नमस्कार एक है, किन्तु नमस्करणीय अरिहन्तों को भावदृष्टि से वह अनन्त हो जाता है ।
इतना सब होते हुए भी देव कोटि में तीर्थंकर रूप अरिहन्तों को ही लिया गया है, सामान्य केवली अरिहन्तों को नहीं । यद्यपि सामान्य अरिहन्तों और तीर्थंकरों के ज्ञान के विषय में कोई अन्तर (विशेष) नहीं होता, परन्तु तीर्थंकर रूप अरिहन्त के तीर्थंकर नामकर्म अवश्य विशेष होता है, जिसके उदय के कारण चौंतीस अतिशय, पैंतीस वाणी के अतिशय तथा अष्टमहाप्रातिहार्य, समस्त इन्द्रपूज्यत्व आदि पूजातिशय तीर्थंकररूप अरिहन्तों के होते हैं, सामान्य अरिहन्तों के नहीं । तीर्थ की स्थापना, कर्मभूमि में, क्षत्रियकुल में जन्म आदि विशेषताएँ भी तीर्थंकररूप अरिहन्त में होती हैं, सामान्य अरिहन्तों में नहीं । तीर्थंकर नामकर्म के उदय के कारण ही वे अनेक भव्य प्राणियों का कल्याण करते हुए मोक्षपद प्राप्त कर लेते हैं ।
यही इन दोनों में अन्तर है । अतएव तीर्थंकर रूप अर्हतु को ही देवकोट में परिगणित किया गया है ।
'जिन' शब्द का रहस्य
अरिहन्तों या अर्हन्तों के लिए 'जिन' 'जिनेश्वर' या 'जिनेन्द्र' शब्द भी प्रयुक्त होता है । 'अर्हन्', 'वीतराग', 'परमेष्ठी', 'भगवान्' आदि शब्द 'जिन' के पर्यायवाची शब्द हैं । इसीलिए 'जिन' के भक्त को 'जैन' और 'जिन' द्वारा उपदिष्ट धर्म को 'जैन धर्म' कहा जाता है ।
१ महादेवस्तोत्र