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अरिहन्तदेव स्वरूप : १७
वस्तुतः अरिहन्त होने पर हो अर्हन्त होते हैं-सुरासुर-नर-मुनिजन द्वारा वन्दनीय-पूजनीय होते हैं, त्रिलोक की प्रभुता प्राप्त करते हैं, अनन्तज्ञान-अनन्तदर्शन-अनन्तचारित्र-अनन्तवीर्य (शक्ति) रूप अनन्त चतुष्टय के धारक होते हैं, वे अखिल विश्व के ज्ञाता-द्रष्टा होते हैं, ऐसे महापुरुष संसार सागर के अन्तिम किनारे पर पह चे हुए होते हैं। उनके मन, वचन और काया कषाय से अलिप्त रहते हैं। समभाव की पराकाष्ठा पर पहुँचे हए होते हैं। सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, शत्र-मित्र, भवन-वन, मनोज्ञ-अमनोज्ञ इन सब पर वे राग-द्वेष से रहित, मध्यस्थ व एकरस रहते हैं। अरिहन्त और तीर्थकर की भूमिका में अन्तर
अरिहन्त शब्द व्यापक है और तीर्थंकर शब्द व्याप्य । अरिहन्त की भूमिका में तीर्थंकर अरिहन्त भी आ जाते हैं और दूसरे सब अरिहन्त भी। तीर्थंकर और दूसरे केवली अरिहन्तों में आत्मविकास की दृष्टि से कुछ भी अन्तर नहीं है। सब अरिहन्त अन्तरंग में समान भूमिका पर होते हैं। सब का ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य समान ही होता है। सबके सब अरिहन्त क्षीणमोह गुणस्थान पार करने पर सयोगी केवली गुणस्थान में पूर्ण वीतराग होते हैं। कोई भी न्यूनाधिक नहीं होते; क्योंकि क्षायिक भाव में कोई तरतमता नहीं होती।
प्रत्येक तीर्थंकर अरिहन्त अपने द्वारा स्थापित श्रमणसंघ (तीर्थ) का सर्वोपरि अधिष्ठाता होता है, किन्तु वह अरिहन्त दशा प्राप्त साधकों से वन्दन नहीं कराता। यही कारण है कि भगवान् महावीर ने केवलज्ञानी तथा अरिहन्तदशा प्राप्त अपने सात-सौ शिष्यों को अपने समान बतलाया है, उन्होंने उनसे वन्दन भी नहीं कराया; क्योंकि आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से वह बराबर की भूमिका है। ___अतएव 'नमो अरिहन्ताणं' पद से प्रत्येक कालचक्र में होने वाले अनन्त-अनन्त तीर्थंकर कोटि के अरिहन्तों को नमस्कार होता ही है, परन्तु उनके अतिरिक्त राम, हनुमान आदि सब अरिहन्त दशा प्राप्त महापुरुषों को, स्वलिंगी, अन्यलिंगी, गृहलिंगी, केवली अरिहन्तों को तथा स्त्री-अरिहन्तों को एवं पुरुष अरिहन्तों को भी नमस्कार हो जाता है। कलिकालसर्वज्ञ आचाय हेमचन्द्र के निम्नोक्त दो श्लोक इसी तथ्य को प्रकाशित करते हैं
भवबीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥१॥