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________________ अरिहन्तदेव स्वरूप : १५ ___(१४) भगवान् के विहरण-मार्ग में पड़े हुए कांटे अधोशिर (उलटे) हो जाते हैं। (१५) ऋतु विपरीत होने पर भी सुखद स्पर्श वाली हो जाती है। यह भगवान् की पुण्यराशि का माहात्म्य है । __(१६) भगवान जहाँ विराजमान होते हैं, वहाँ शीतल सुखद स्पर्शवाली सुगन्धित हवा से एक योजन परिमित परिमण्डल (क्षेत्र) चारों ओर से प्रमार्जित (साफ-शुद्ध) हो जाता है। (१७) हवा से आकाश में उड़ी हुई रज (धूल) हल्की-हल्की अचित्त जल की वृष्टि से शान्त हो जाती है, जिससे वह स्थान प्रशस्त एवं रम्य हो जाता है। (१८) भगवान् के विराजने के स्थान में देवों द्वारा विक्रिया से निर्मित अचित्त जलज और स्थलज चमकीले पाँच वर्गों के पुष्पों का घुटने-घुटने तक ढेर हो जाता है। जिनका ठंडल (टेंट) नीचे की ओर और मुख ऊपर की ओर. होता है। . (१६) भगवान् के समवसरण में अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का अपकर्ष (नाश) हो जाता है। (२०) (इसके विपरीत) मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का प्रादुर्भाव हो जाता है। (२१) उपदेश करते समय भगवान् का स्वर (आवाज) एक योजन तक होता है, जो अतिमधुर और श्रोताओं हृदय को रुचिकर होता है। (२२) तीर्थंकर भगवान अर्द्धमागधी भाषा में धर्मकथा करते हैं। अद्धमागधी प्राकृत भाषा का एक रूप है। (२३) उस अद्धमागधी भाषा में जब भगवान भाषण करते है, तब वह आर्य-अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मग (वन्य पशु), पशु (ग्राम्य पशु), पक्षी, और साँप आदि सबकी अपनी-अपनी हितकारी, शिव (कल्याण) कारी और सुखकारी भाषा के रूप में परिणत (तब्दील) हो जाती है। (२४) तीर्थंकर भगवान के चरणों में बैठे हुए देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग इत्यादि विविध जाति के देवगणों का पहले वैर बँधा हुआ होने पर भी (तीर्थंकर भगवान की पूर्ण अहिंसा की निष्ठा के कारण उनके सान्निध्य में) वे प्रशान्त चित्त होकर धर्मकथा श्रवण करते हैं। (२५) तीर्थंकर भगवान के अतिशय के प्रभाव से स्वमताभिमानी अन्य तीर्थिक एवं प्रावनिक भी सम्मुख आते ही नम्र होकर वन्दना करने लगते हैं।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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