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________________ १४ : जैन तत्त्वकलिका (१) तीर्थंकर भगवान् के केश, दाढ़ी-मूछ के बाल, शरीर के रोम और नख; ये (पुण्योपार्जन के फलस्वरूप) सदैव अवस्थितावस्था में (जिस हालत में होते हैं, उसी हालत में) रहते हैं। वे मर्यादा से अधिक नहीं बढ़ते । ... (२) उनकी शरीरयष्टि नीरोग और रज, मैल आदि अशुभ लेप से रहित-निर्मल रहती है। (३) उनके रक्त और मांस गाय के दूध से भी अधिक उज्ज्वल एवं श्वेत होते हैं। .(४) उनके श्वासोच्छ्वास पद्मकमल से भी अधिक सुगन्धित होते हैं। ___(५) उनके आहार और नीहार चर्मचक्ष वालों द्वारा दिखाई नहीं देते । अवधिज्ञानी आदि देख सकते हैं। . (६) जब भगवान् चलते हैं तो आकाश में आवाज करता हुआ धर्मचक्र चलता है, जिससे सबको मालूम हो जाता है कि भगवान् अमुक देश, ग्राम या नगर में विचरण कर रहे हैं। (७) भगवान के सिर पर आकाश में एक पर दूसरा और दूसरे पर पर तीसरा; ये तीन छत्र भी चलते हैं। जिससे भगवान त्रिलोकी के नाथ सिद्ध होते हैं। ___(८) आकाश में अत्यन्त श्वेत चामर भी चलते हैं, जो देवाधिदेव के लोकोत्तर राज्य के चिह्न प्रतीत होते हैं। () आकाश के समान अत्यन्त निर्मल स्फटिक रत्नमय पादपीठ के सहित सिंहासन भी आकाश में चलता है। (१०) आकाश में अत्यन्त ऊँचा तथा सहस्र लघुपताकाओं से परिमण्डित अत्यन्त मनोहर इन्द्रध्वज भगवान् के आगे-आगे चलता है। जिससे भगवान् का इन्द्रत्व (जिनेन्द्रत्व) सूचित होता है। (११) जहाँ-जहाँ अरिहन्त भगवान् खड़े होते हैं, या बैठते है, वहाँवहाँ तत्क्षण पत्तों और फूलों से युक्त तथा छत्र, ध्वज, घंटा और पताका के सहित श्रेष्ठ अशोक वृक्ष उत्पन्न हो जाता है। इससे भगवान् पर छाया हो जाती है। __ (१२) भगवान् के पृष्ठ भाग में (मस्तक के पीछे) मुकुट के स्थान में एक तेजोमंडल होता है, जो दसों दिशाओं में फैले हुए अन्धकार को मिटाकर प्रकाश कर देता है। (१३) भगवान् जहाँ विचरण करते हैं, वह भूभाग अत्यन्त सम और रमणीय हो जाता है।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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