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१० : जैन तत्त्वकलिका
(१) संस्कारवत्त्वम्-तीर्थंकर भगवान् की वाणी संस्कारयुक्त होती है, अर्थात्-उनकी वाणी शब्दागम के नियमों से या संस्कृतादि लक्षणों से युक्त होती है।
(२) उदात्तत्वम्-भगवान की वाणी उच्चस्वर (बुलंद आवाज) वालो होती है, जिसे संपूर्ण समवसरण में चारों ओर बैठी हुई परिषद् भलीभाँति श्रवण कर लेती है।
(३) उपचारोपेतत्वम्-भगवद्वाणी तुच्छतारहित सम्मानपूर्ण गुणवाचक शब्दों से युक्त होती है, उसमें ग्राम्यता नहीं होती।
(४) गम्भीर शब्द-उनकी वाणी मेघगर्जना की तरह सूत्र और अर्थ से गम्भीर होती है, अथवा उच्चारण और तत्त्व दोनों दृष्टियों से उनके वचन गहन होते हैं, जो उनकी स्वाभाविक योग्यता और प्रभाव को सूचित करते हैं।
(५) अनुनादित्वम्-जैसे गुफा में और शिखरबद्ध प्रासाद में बोलने से प्रतिध्वनि उठती है, वैसे ही भगवान् की वाणी की प्रतिध्वनि उठती है।
(६) दक्षिणत्वम्-भगवान् के वचन दाक्षिण्य-पूर्ण होते हैं अर्थात्-वे निश्छलता और सरलता से युक्त होते हैं।
(७) उपनीतरागत्वम्-भगवान् की वाणी मालकोश आदि ६ रागों ३० रागिनियों में परिणत होने से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध एवं तल्लोन कर देती है।
उपयुक्त सातों वचनातिशय शब्द-प्रधान–शब्द से सम्बन्धित हैं । आगे के शेष २८ वचनातिशय अर्थप्रधान-अर्थ से सम्बन्धित हैं।
(८) महार्थत्वम् - भगवान् की वाणी सूत्ररूप होने से उसमें शब्द अल्प होते हैं, किन्तु उनमें महान् अर्थ गर्भित होता है !
() अव्याहत पौर्वापर्यत्वम्-भगवान् की वाणी पूर्वापरविरोध-रहित होती है। किन्तु अनेकान्तवाद से युक्त उनके सापेक्षवाक्य होते हैं।
(१०) शिष्टत्वं-उनका वचन अभिप्रेतसिद्धान्त की शिष्टता-योग्यता का सूचक होता है अथवा उनका भाषण अनुशासनबद्ध होता है।
(११) असंदिग्धत्वम्-भगवान के वाक्य असंदिग्ध होते हैं, वे श्रोताओं के मन में संदेह उत्पन्न नहीं करते, बल्कि पहले से उत्पन्न संशय को मिटा देते हैं।