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८ : जैन तत्त्वकलिका
(६) भामण्डल-भगवान् के मुख के पीछे एक तेजोमण्डल होता है, जो सूर्य मण्डल के समान प्रकाशमान होता है। जिससे दसों दिशाओं का अन्धकार विनष्ट हो जाता है।
(७) देवदुन्दुभि-जिस स्थान में तीर्थंकर विराजमान होते हैं, वहाँ देवता दुन्दुभिनाद द्वारा उद्घोषणा करते हैं, जिससे भगवान् के आगमन का पता लग जाने से अनेक भव्य जीव उनकी दिव्यवाणी सुनकर लाभ उठाते हैं, अपना कल्याण करते हैं।
(८) आतपत्र-देवगण भगवान् के सिर पर तीन छत्र रखते हैं, जिससे सूचित होता है कि भगवान त्रैलोक्य के स्वामी हैं।
ये आठ' महाप्रातिहार्य भगवान् के विशेष पुण्योदय से प्रकट होकर उनके 'पूजातिशय' को सूचित करते हैं।
इसके अतिरिक्त तीर्थंकर ६४ इन्द्रों के द्वारा पूजनीय हैं, यह भी उनका पूजातिशय है। ज्ञानातिशय
अर्हन्त भगवान् अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन के धारक होते हैं। उनसे अतीत, अनागत और वर्तमान काल की कोई भी बात छिपी नहीं रहती। वे त्रिकाल और त्रिलोक के ज्ञाता होते हैं । वे सम्पूर्ण (केवल) ज्ञानी, सर्वज्ञ
और सर्वदर्शी होते हैं । उनके ज्ञान का अतिशय समग्र लोक को प्रकाशित कर देता है।
___ उत्तराध्ययन सूत्र में पार्खापत्य श्रमण केशीकुमार और भगवान् महावीर के प्रधान शिष्य गौतम गणधर के संवाद में केशी श्रमण श्री गौतम
१ अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यध्वनिरवानरमासनं च।
भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रमष्टौ महाप्रातिहाणि जिनेश्वराणाम् ॥ न्धयारे तमे घोरे चिट्ठति पाणिणो बहू। को करिस्सइ उज्जोयं, सबलोयंमि पाणिणं ? उग्गओ विमलो भाणू सव्वलोयप्पभंकरो। सो करिस्सइ उज्जोयं सव्वलोयंमि पाणिणं ।। भाणू य इइ के वुत्ते ?, केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ।। उग्नओ खीणसंसारो सम्वन्नू जिगभरखरो। को करिस्सइ उज्जोयं, सव्वलोयंमि पाणिणं ॥ - उत्तरा०२३, ७५-७६