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अरिहन्तदेव स्वरूप : ७
विशेषतया अर्हन्तों में चार विशिष्ट अतिशय होते हैं, जो उन्हें पूजा ओर श्रेष्ठता के योग्य बनाते हैं- (१) पूजातिशय, (२) ज्ञानातिशय, (३) वचनातिशय और (४) अपायापगमातिशय ।
पूजातिशय अर्हन्त तीर्थंकर अष्टमहाप्रातिहार्य आदि के पूजातिशय से सम्पन्न (उपलक्षित) होते हैं।'
____ अष्टमहाप्रातिहार्य क्या हैं ? इन्हें समझ लेना आवश्यक है। पूज्यता प्रकट करने वाली जो सामग्री प्रतिहारी (पहरेदार) की भाँति सदा साथ रहे, वह प्रातिहार्य है। अदभुतता या दिव्यता से युक्त होने के कारण इसे महाप्रातिहार्य कहा जाता है। वह पूज्यता सामग्री आठ प्रकार की होने से उसे अष्टमहाप्रातिहार्य कहा जाता है। वह इस प्रकार है(१) अशोकवक्ष
(४) चामर (७) दुन्दुभि, और (२) सुरपुष्पवष्टि (५) आसन (८) आतपत्र (छत्र) । (३) दिव्यध्वनि
(६) भामण्डल (१) अशोक वृक्ष-भूमण्डल को पावन करते हुए तीर्थंकर जहाँ धर्मोपदेश देने के लिए बैठते या खड़े होते हैं, वहाँ उनके शरीर से द्वादश गुणा ऊँचे अति सुन्दर अशोकवक्ष की रचना हो जाती है, जो वक्ष की समग्र शोभा से युक्त होता है। जिसे देखते ही भव्य प्राणियों का आध्यात्मिक शोक दूर हो जाता है।
(२) सुरपुष्पवृष्टि-जिस स्थान पर भगवान् का समवसरण (धर्मसभा) होता है, वहाँ एक योजन तक देवगण पाँचों वर्गों के मनोहर सुगन्धित अचित्त पुष्पों की वर्षा करते हैं ।
(३) दिव्यध्वनि-तीर्थंकर भगवान् के श्रीमुख से सर्वभाषा में परिणत होने वाली अर्द्धमागधी भाषा में सर्ववर्णोपेत एवं योजनगामिनी दिव्यध्वनि (वाणी) निकलती है, जिसे सुनकर सभी प्राणी अपनी-अपनी भाषा में उसके भाव को संशयरहित होकर समझ जाते हैं।
(४) चामर-तीर्थंकर भगवान् के दोनों ओर श्वेत चामर ढुलाए
(५) आसन–भगवान् जहाँ विराजमान होने लगते हैं, वहां पहले से हो अशोकवक्ष के नीचे पादपीठ सहित स्वर्णमय सिंहासन रख दिया जाता है । १ 'अमरवरनिर्मिताशोकादिमहाप्रातिहार्यरूमा पूजामहन्तीत्यर्हन्तः ।'
-भगवती, अभय-वृत्ति, मंगलाचरण