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६ : जैन तत्त्वकलिका
काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग-द्वष आदि विकारों से न्यूनाधिक रूप में अभिभूत होते हैं । देवों के राजा–इन्द्र-देवेन्द्र यद्यपि देवों द्वारा पूजनीय होते हैं, किन्तु वे जगद्वन्द्य-त्रिलोकपूज्य नहीं होते जबकि देवाधिदेव अर्हन्त उपर्युक्त सभी विशेषताओं से युक्त होते हैं। मनुष्यों में भूदेव (विप्र) एवं नरदेव (राजा) आदि देव कहलाते हैं; वे भी छदमस्थ रागद्वषाभिभूत एवं अल्पज्ञ होने के कारण देवाधिदेव की कथमपि समता नहीं कर सकते। अर्हन शब्द का विशेषार्थ
पूर्वोक्त देवाधिदेव का वर्तमान में सर्वाधिक प्रचलित नाम अर्हन या अरिहन्त है। सम्यक्त्व ग्रहण-सूचक पाठ में 'अरिहन्तो महदेवो'' तथा योगशास्त्र का निम्नोक्त देवलक्षण प्रदर्शक श्लोक आदि इसके प्रमाणरूप हैं
सर्वज्ञो जितरागादिदोषास्त्रलोक्यपूजितः।
यथास्थितार्थवादी च, देवोऽहन परमेश्वरः ॥२ . अर्थात्-सर्वज्ञ, रागादिदोषविजेता, त्रैलोक्यपूजित, यथावस्थित पदार्थ-कथन करने वाला, परमेश्वर और अर्हन (अरिहन्त) देव है ।
जैनशास्त्रों में अर्धमागधी भाषा में अर्हन् शब्द के लिए अरहा, अरहन्त, अरुहन्त और अरिहन्त शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। ..
'अर्हन्' शब्द का अर्थ और स्वरूप समझने के लिए हमें शब्दशास्त्र की ओर दृष्टिपात करना होगा। ‘अर्हन्' शब्द 'अर्ह' धातु (क्रिया) से निष्पन्न हुआ है। 'अहं' धातु योग्य होना तथा पूजित होना, इन दो अर्थों में प्रयुक्त होती है अतएव संस्कृत भाषा के सभी कोषों ने 'अर्हन्' का अर्थ किया हैजो 'सम्मान या पूजा के योग्य हो' । .
.. प्रश्न हो सकता है, इस विश्व में माता-पिता, अधिकारीवर्ग, बड़े लोग, विद्यागुरु, सामाजिक या राष्ट्रीय नेता तथा राजा आदि सम्मान या पूजा के योग्य माने जाते हैं, तो क्या उन सभी को 'अर्हन्' कहा जा सकता है?
- इसका समाधान धर्मशास्त्रों द्वारा इस प्रकार किया गया है जो देव-दानव और मानव, इन तीनों के द्वारा पूज्य हों, अर्थात् त्रैलोक्यपूजित हों, उन्हें हो 'अर्हत्' समझना चाहिए।
१ आवश्यक सूत्र, सम्यक्त्व पार... - २ योगशास्त्र, प्रकाश २, श्लोक ४ ३ देवासुरमणुएसु अरिहा पूजा एकलमा जम्हा ।
-आवश्यकनियुक्ति गा० ९२२