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________________ अरिहन्तदेव स्वरूप अहंत परमात्मा को जिन, जिनेश्वर, वीतराग, सर्वज्ञ, तीर्थंकर, देवाधिदेव आदि अनेक नामों से सम्बोधित करते हैं। हम क्रमशः इन सब विशिष्ट नामों पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे। देवाधिदेव क्यों और कैसे ? __ अर्हत्-परमात्मा को देव के बदले देवाधिदेव कहा गया है । देवाधिदेव का शब्दशः अर्थ तो देवों के भी अधिष्ठाता (आराध्य-उपास्य-पूजनीय) देव होता है, किन्तु इसका विशेष स्वरूप जानने के लिए हमें शास्त्रों की गहराई में उतरना होगा। - भगवती सूत्र में गणधर इन्द्रभूति गौतम ने श्रमण भगवान महावीर से एक प्रश्न किया है कि 'भगवन ! देवाधिदेव (अर्हन्त), देवाधिदेव क्यों कहे जाते हैं ?' इसके उत्तर में भगवान् महावीर ने कहा-गौतम ! जो ये अरिहन्त भगवान् हैं, वे समुत्पन्न (अनन्त) ज्ञान और (अनन्त) दर्शन के धारक होते हैं । अतीत, वर्तमान और अनागत (भविष्य) को (हस्तामलकवत्) जानते हैं। वे अर्हत्, जिन (राग-द्वष-विजेता) केवली (सम्पूर्ण ज्ञान के धारक), सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हैं। इस कारण से उन्हें देवाधिदेव कहा जाता है।' जो स्वर्ग के देव होते हैं, उनमें अधिक से अधिक अवधिज्ञान तक होता है, उनमें मनःपर्यवज्ञान एवं केवलज्ञान नहीं होता। इस कारण वे अनन्तज्ञानदर्शन के धारक या त्रिकालज्ञ, केवली, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी नहीं होते। इसका कारण यह है कि वे राग-द्वषादि विकारों के विजेता नहीं होते, बल्कि वे देव १ (प्र.) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ देवाधिदेवा देवाधिदेवा ? (उ.) गोयमा ! जे इमे अरिहंता भगवंतो उपपन्ननाणदंसणधरातीय-पडुपन्नमणागया जाणया, अरहा जिणा केवली · सव्वण्णू सव्वदरिसी; से तेण→णं. "जाव देवाधिदेवा देवाधिदेवा। --भगवतीसूत्र, शतक १२, उद्देशक ६
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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