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________________ मंगलाचरण : ३ तिक, नैतिक एवं धार्मिक उत्थान में इन तीनों तत्त्वों की आराधना - उपासना अनिवार्य रूप से क्यों उपादेय है ? मोक्ष रूप लक्ष्य की ओर गति प्रगति करने में ये तीनों तत्त्व किस प्रकार से सहायक होते हैं ? आत्मा पर लगे हुए कर्मरूपी आवरणों और राग-द्व ेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अभिमान, माया, ईर्ष्या, द्रोह आदि विकारों और दोषों को दूर करने तथा आत्मा को शुद्ध, निर्विकार एवं निर्मल बनाने में इन तीनों आराध्य तत्त्वों से क्या और किस प्रकार से प्रेरणा मिल सकती है ? इस प्रकार के अनेक प्रश्नों का जब तक समाधान न हो जाए, तब तक सर्वांगीण रूप से सर्वात्मना इन तीनों तत्त्वों की आराधना और उपासना नहीं हो सकती । अतः इन तीनों तत्त्वों का स्वरूप भली-भाँति हृदयंगम कर लेना आवश्यक है । देवस्वरूप दिग्दर्शन देव का अर्थ 'देव' शब्द यहाँ स्वर्ग में रहने वाले देव-देवी, मेघ, ब्राह्मण या राजा आदि का वाचक नहीं, परन्तु उस परमतत्त्व का संकेत करता है, जिसकी आराधना-उपासना करने से मनुष्य में धर्म का दिव्य तेज प्रकट होता है और वह उत्तरोत्तर आध्यात्मिक विकास प्राप्त करता जाता है । आत्मिक दिव्यता से युक्त पुरुष को यहाँ देव कहा गया है । देवपद में समाविष्ट : अरिहन्त और सिद्ध इस परम तत्त्व का व्यवहार अनेक नामों से होता है । परन्तु जैनधर्म उसके लिए 'परमात्मा' शब्द का प्रयोग करता है । जैनदृष्टि से अर्हतु (या अरिहन्त) और सिद्ध दोनों परमात्मा (परम + आत्मा) हैं । अरिहन्त साकार परमात्मा हैं, जबकि सिद्ध निराकार परमात्मा हैं । अरिहन्त परमात्मा चार घाती कर्मों का क्षय कर चुकते हैं, अर्थात् - वे अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन वीतराग अवस्था (अक्षय चारित्र) और अनन्तवीर्य से युक्त होते हैं । 1 सिद्ध परमात्मा घाती और अघाती सभी कर्मों का नाश किये हुए कृतकृत्य होते हैं । वे निरंजन, निर्विकार, कर्म और काया से रहित होते हैं । इस कारण वे आत्मा के परम शुद्ध स्वरूा में स्थिर होते हैं । अतः अर्हतदेव की तरह सिद्ध परमात्मा भी देवपद में गर्भित हैं । पंचपरमेष्ठी मंत्र में सर्वप्रथम अरिहन्तों को नमस्कार किया जाता है, तत्पश्चात् सिद्धों को इसका कारण यह है, कि अरिहन्त देव जीवन्मुक्त और सशरीरी होने से प्राणियों के लिए परम उपकारी, परम-रक्षक, परम दयालु
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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