SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २ : जैन तत्त्वकलिका से पूर्णिमा तक इन्हीं नौ पदों की आराधना-उपासना आयम्बिल तप के साथ की जाती है। इस प्रकार देव, गुरु, धर्म की आराधना और उपासना जप, तप, व्रत, नियम, त्याग, वन्दन-नमस्कार, दर्शन आदि विविध रूपों में की जाती रही है। . .., "; धर्मसंघ के लिए तीन सुदृढ़ अवलम्बन जैसे बिना अवलम्बन के मनुष्य लड़खड़ा कर गिर पड़ता है, वैसे ही इन तीन आराध्यों के सुदृढ़ अवलम्बन के बिना धर्मसंघ या संघ का कोई भी अनुगामी संशयग्रस्त होकर, कुसंग या मिथ्यात्वियों के संग में फंसकर अथवा धर्ममार्ग से फिसलकर, इन्द्रियविषय-भोगप्रधान मतों के चक्कर में फंसकर पतन के गड्ढे में गिर सकता है । इसलिए धर्मसंघ के लिए देव, गुरु और धर्म, इन तीन सुदृढ़ अवलम्बनों की आवश्यकता है। :: सम्यक्त्व के तीन मूलाधार देव, गुरु और धर्म, ये तीन व्यावहारिक सम्यक्त्व के मूलाधार हैं। इन तीन मूल आधारों के बिना मनुष्य चाहे जिस देव, चाहे जसे साधुवेशधारी नकली गुरु और भोगवासनाप्रधान नकली धर्म के चक्कर में पड़कर गुमराह हो जाएगा, दृष्टिभ्रान्त होकर संसार-भ्रमण के पथ पर भटक जाएगा। इसीलिए आचार्य हेमचन्द्र ने व्यावहारिक सम्यक्त्व का लक्षण इस प्रकार दिया है-"देव में शुद्ध प्रकार की देवबुद्धि, गुरु में शुद्ध प्रकार की गुरुबुद्धि और शुद्धधर्म में शुद्ध धर्मबुद्धि होना, सम्यक्त्व कहलाता है।' सीमों तत्त्वों का स्वरूप जानना आवश्यक परन्तु इन आराध्य और उपास्य देव, गुरु और धर्म का स्वरूप क्या है ? ये किन-किन दोषों से रहित और किन-किन सद्गुणों से युक्त होते हैं ? इन तीनों पदों या तत्त्वों की आराधना-उपासना क्यों करनी चाहिए? इनकी आराधना या उपासना से क्या क्या लाभ हैं ? जीवन-निर्माण या जीवन-विकास में इन तीनों तत्त्वों का क्या स्थान है ? आध्यात्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, सांस्कृ १ (क) या देवे देवताबुद्धिगुरौ च गुरुतामतिः । धर्मे च धर्मधीः शुद्धा, सम्यक्त्वमिदमुच्यते ॥-योगशास्त्र, प्रकाश २, श्लोक २ (ख) अरिहंतो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो । जिणपण्णत तत्त, इअ सम्मत्त मए गहिरं ॥ - आवश्यक सूत्र
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy