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२८६ | जैन तत्त्वकलिका : नवम कलिका
अब अर्थ के अनुरूप उचित शब्द प्रयोग को मानने वाले अवशिष्ट तीन शब्दनयों को देखें
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(५) शब्दनय - यह नय पर्यायवाची शब्दों को एकार्थवाची मानता है, परन्तु काल, कारक, लिंग, संख्या, पुरुष आदि के कारण यदि उनमें भेद हो तो इस भेद के कारण एकार्थवाची शब्दों में भी यह अर्थभेद मानता है । लेखक के समय में राजगृह नगर विद्यमान होने पर भी राजगृह भिन्न प्रकार होने से और उसी का वर्णन उसे अभीष्ट होने से वह 'राजनगर था ऐसा प्रयोग करता है । इस प्रकार कालभेद से अर्थभेद का व्यवहार इस नय के कारण होता है । अर्थात् - जो शब्द जिस अर्थ ( वस्तु) का वाचक या सूचक होता है, शब्दन उस अर्थ (वस्तु) को सूचित करने के लिए उसी शब्द का प्रयोग करने का ध्यान रखता है । जैसे- लिंगभेद नर-नारी, पुत्र-पुत्री आदि । परिमाणभेद - छोटा-बड़ा, पहाड़-पहाड़ी, लोटा लोटी आदि । सम्बन्ध-भेद एक ही मनुष्य भिन्न-भिन्न मनुष्यों से भिन्न-भिन्न नाता रखता हो तो उस सम्बन्ध को दिखलाने के लिए यह नय भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग करेगा । जैसे - यह याचा है, भतीजा है, पिता है, पुत्र है, श्वसुर है, दामाद है; आदि । इसी प्रकार यह नय वचनभेद व कारकभेद के अनुसार विभिन्न शब्द प्रयोग करेगा |
(६) समभिनय - जो नय भलोभाँति अर्थ पर आरूढ़ हो, वह समभिरूढ़ नय कहलाता है । अथवा जो भिन्न-भिन्न पर्यायशब्दों का भिन्न-भिन्न वाच्यार्थ ग्रहण करे, वह समभिरूढ़ कहलाता है ।
इस नय की दृष्टि में प्रत्येक शब्द का अर्थ भिन्न-भिन्न है । शब्दनय तो का, लिंग आदि के भेद से अर्थ का भेद मानता है, शब्दभेद के कारण अर्थभेद नहीं मानता । लेकिन समभिरूढ़ नय काल आदि का भेद न होने पर भी इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि पर्यायवाची शब्दों में शब्दभेद के कारण तथा व्युत्पत्तिभेद के कारण अर्थभेद मानता है ।
यह नय राजचिह्नों से सुशोभित हो, उसे ही राजा कहेगा, नरों का रक्षण करे, उसे ही नृप कहेगा; पृथ्वी का पालन-पोषण करे उसे ही भूपाल या महीपाल कहेगा । इस प्रकार यह नय पर्यायवाचक शब्द को या प्रचलित अर्थ को नहीं, परन्तु शब्द के मूल अर्थ को ग्रहण करता है । यही इसकी विशेषता है ।
(७) एवंभूतनय -- ' एवं ' अर्थात् व्युत्पत्ति के अर्थानुसार भूत- अर्थात्होने वाली क्रिया में जिसका परिणमन हो, उसे ग्रहण करने वाला एवंभूतनय