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प्रमाण -नय-स्वरूप | २८५
दूध आदि अनेक वस्तुओं का संग्रह होता है अतः 'भोजन' संग्रहनय का शब्द है । इसी तरह सेना, वृक्ष, पशु, पक्षी आदि सब संग्रहनय के शब्द हैं ।
इस नय के दो प्रकार हैं- सामान्यसंग्रह, विशेष संग्रह |
जो सर्व द्रव्य-गुण-पर्याय को ग्रहण करे, वह सामान्यसंग्रह है । यथा— 'सत्' । इसी प्रकार जो सर्वद्रव्यों को ग्रहण करे, वह भी सामान्यसंग्रह है । जैसे- - द्रव्य । द्रव्य कहने से जीव, अजीव आदि द्रव्य का ही संग्रह होता है, इस प्रकार जो अमुक द्रव्य का संग्रह करे, वह विशेषसंग्रह है । जीवद्रव्य कहने से सभी जीवों का समावेश हो जाता है; परन्तु अजीवादि द्रव्य रह जाते हैं | संग्रहनय 'सामान्य' को ही प्रधानता देता है ।
(३) व्यवहारनय-वस्तु के सामान्यधर्म को गौण करके जो विशेषधर्म कोही प्रधानता देता है, वह व्यवहारनय कहलाना है । उदाहरणार्थ - व्यवहारनय द्रव्य के छह प्रकार मानता है, तथा प्रत्येक के उत्तर-भेद-प्रभेद बताता जाता है ।
जैसे - द्रव्य के ६ भेद धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव । इनमें से जीव के दो भेद - सिद्ध और संसारी । फिर संसारी के दो भेदत्रस और स्थावर । त्रस के द्वीन्द्रिय, त्रोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय, यों ४ भेद | पंचेन्द्रिय के चार भेद - नारक, तिर्यञ्च मनुष्य और देव | इस तरह स्थावर के ५ भेद— पृथ्वी, अप्, तेजस्, वायु और वनस्पतिकाय ।
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व्यवहारनय मानता है कि विशेषता के बिना किसी भी वस्तु का स्पष्ट बोध कैसे हो सकता है ? किसी से कहें कि वनस्पति लाओ; तो वह क्या लाएगा ? किन्तु 'आम लाओ, नीम लाओ' ऐसी विशेष वनस्पति लाने कहें तो वह ले आएगा । इसलिए विशेष को हो प्रधानता देनी चाहिए ।
(४) ऋजुसून - जो वर्तमानकालीन स्वकीय अर्थ को ग्रहण करे, उसे ऋजुसूत्रनय कहते हैं । एक मनुष्य भूतकाल में 'राजा' रहा हो, किन्तु वर्तमान में 'वह भिखारी हो तो यह नय उसे राजा न कहकर भिखारी ही कहेगा । क्योंकि वर्तमान में वह भिखारी की स्थिति में है ।
ऋजुसूत्रनय वस्तु के अतीत तथा अनागत स्वरूप को नहीं मानता, परन्तु वर्तमान और निजस्वरूप को हो मानता है । अतीत, अनागत या परकीय वस्तु से कोई कार्यसिद्धि नहीं होती । नाम, स्थापना और द्रव्य को न मानते हुए मात्र भाव को ही मानता है ।
ये चार अर्थनय कहलाते हैं, क्योंकि ये वस्तु का विचार करते हैं ।