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गृहस्थधर्म-स्वरूप | २७३ हुआ, प्रतिक्षण जागृत श्रमणोपासक महानिर्जरा कर लेता है, संसारसागर का अन्त कर देता है। अपश्चिम-मारणान्तिक संलेखना-जोग्णा-आराधनावत
___ बारहवें व्रत के पश्चात् श्रावक को मृत्यु का समय निकट आने पर सर्वजीवों से वैरभाव छोड़कर, अपने पूर्वकृत पापों का आलोचना-निन्दनागर्हणा और प्रायश्चित्तपूर्वक आत्मशुद्धीकरण करने तथा समाधिमरण के लिए संल्लेखना-संथारा (आजीवन अनशन) ग्रहण करना चाहिए। .
इस व्रत के भी पांच अतिचार हैं, जो जानने योग्य हैं, किन्तु आचरण करने योग्य नहीं-(१) इहलोकाशंस-प्रयोग–अनशनग्रहण करने पर आकांक्षा करना कि मैं मरकर इसी लोक में इभ्यसेठ, मन्त्री या राजा आदि बनूं, (२) परलोकाशंसप्रयोग-मर कर मैं देव, इन्द्र आदि आदि बन जाऊँ। (३) जीविताशंसप्रयोग–अधिक जीऊं तो अच्छा है, क्योंकि मेरी यशोकीर्ति बढ़ रही है, (४) मरणाशंसप्रयोग-इस कष्ट भोगने की अपेक्षा अथवा यशोकीति न होने के करण जल्दी ही मर जाऊँ तो अच्छा ! (५) काम भोगाशंसप्रयोगअथवा मरने पर देवों एवं मनुष्यों के कामभोग मुझे प्राप्त हों, ऐसा निदान करना।
.संल्लेखना संथारा (अनशन) के ये पांच अतिचार हैं, इनका त्याग करने से ही शुद्ध समाधिमरण प्राप्त हो सकता है।
इन बारह व्रतों को श्रावक अपनी योग्यता, शक्ति और क्षमता के अनुसार ग्रहण करता है । श्रावकों को ग्रहण-शक्ति अपेक्षा से इनके ४६ भांगे होते हैं।
जब श्रावक इन व्रतों के परिपालन में दृढ़ हो जाता है, शुद्ध रूप से
१ तिहि ठाणेहि समणोवासते महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, तं जहा–कयाण
महमप्पं वा बहुयं वा परिग्गरं परिचइस्सामि १ कयाणं अहं मुडे भवित्ता आगारातो अणगारियं पव्वइस्सामि २ कयाणं अह अपच्छिम-मारणंतिय संलेहणाझूसणा-झूसिते भत्तपाणपडियातिक्खते पाओवगते कालं अणवकंखमाणे विहरिस्सामि३, एवं समणसा सवयसा सकायसा पागडेमाणे जागरेमाणे समणोवासते महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवति । -- स्थानांग स्था० ३ उ.४ सू०२१० २ तयाणंतरं च णं अपच्छिममारणंतियसलेहणाझूसणाराहणाए पंच अइयारा जाणि
यव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा-इहलोगासंसप्पओगे, परलोगासंसप्पओगे, जीवियासंसप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, कामभोगासंसप्पओगे।-उपासकदशांग अ० १