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२७२ | जैन तत्त्वकलिका : अष्टम कलिका
से ढांक देना भी अतिचार है। (३) कालातिक्रम-भोजन (भिक्षा) का समय टालकर अन्य समय में आहार-पानी आदि की विनति करना । अथवा या तो पहले ही बना कर भोजन समाप्त कर लेना या भिक्षा के समय के पश्चात् बनाना । (४) परब्यपदेश-न देने की बुद्धि से अपनी वस्तु दूसरे की बताना, ताकि साधु-साध्वी उस वस्तु को ले न सकें । यह भी अतिचार है । (५) मत्सरता-अमुक गृहस्थ ने इस प्रकार का, ऐसा दान दिया है, तो क्या मैं उससे कम हूँ, मैं उससे भी बढ़कर सरस पदार्थ साधु को दूंगा, इस प्रकार असूया, मत्सर भाव या अहंकारपूर्वक दान देना, पाँचवाँ अतिचार है।'
इस व्रत की शुद्ध आराधना के लिए इन पांचों अतिचारों का त्याग करना आवश्यक है। श्रावक के तीन मनोरथ
शास्त्रकारों ने बताया है कि श्रावक को अपना जीवन सार्थक बनाने और कर्मों की महानिर्जरा करके संसार का अन्त करने के लिए तीन मनोरथ (भावना) प्रतिदिन करना चाहिए
(१) कब मैं अल्प या बहुत परिग्रह का त्याग (दान) करूंगा । क्योंकि गृहस्थ का मुख्य धर्म दान करना है। धार्मिक कार्यों में धन का सदुपयोग करना गृहस्थ का मुख्य कर्तब्य है।
(२) कब मैं संसारपक्ष-गृहस्थवास को छोड़कर मुण्डित होकर आगारधर्म से अनगारधर्म में प्रवजित-दीक्षित होऊँगा।
गहस्थाश्रम में रहकर शान्ति का मार्ग प्राप्त करना आसान नहीं है, किन्तु मुनिवृत्ति में शान्ति की प्राप्ति अनायास एवं शीघ्र हो सकती है । अतः मुनिवृत्ति धारण करने की भावना सदैव रखनी चाहिए।
(३) कब मैं शुद्ध अन्तःकरण से सब जीवों से क्षमायाचना करके मैत्रीभाव धारण करके आहार-पानी (भक्त) का प्रत्याख्यान (त्याग) करके समाधिपूर्वक पादपोपगमन अनशनव्रत धारण करके काल की इच्छा न करता हुआ विचरण करूंगा। अर्थात्-अपश्चिम मारणान्तिक संल्लेखना करके शुद्धभावों से समाधिमरण प्राप्त करूंगा।
मन, वचन, काया से इस प्रकार की तीन भावना (मनोरथ) करता १ तयाणंतरं च णं अहासंविभागस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समा
यरियव्वा, तं जहा-सचित्तनिम्खेवण या सचित्तपिहाणया कालाइक्कमे परोवएसे मच्छरिया।
-उपासकदशांग अ० १