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गृहस्थधर्म-स्वरूप | २७१
दुष्प्रमार्जित शय्या संस्तारक — शय्यासंस्तारक का प्रमार्जन न किया हो, किया हो तो अस्थिरचित से किया हो, तो अतिचार है, (४) अप्रमार्जित -दुष्प्रमार्जित उच्चार प्रस्रवणभूमि - उच्चार-प्रस्रवणभूमि का प्रमार्जन न किया हो, किया हो तो अस्थिरचित्त से किया हो; (५) पोषधोपवास की सम्यक् अननुपालनता - पौष - धोपवास का सम्यक् प्रकार से पालन न किया हो, अर्थात् - पौषधोपवास में सांसारिक कार्यों के, खाने-पीने के संकल्प-विकल्प उत्पन्न किये हों, चित्त चंचल रखा हो ।'
इन पांच अतिचारों से रहित होकर शुद्ध पौषधोपवासव्रत का पालन करना चाहिए ।
(४) अतिथि संविभागव्रत
यह श्रावक का बारहवाँ व्रत है, और चौथा शिक्षाव्रत है | श्रावक द्वारा अतिथि (जिनके आने की तिथि निश्चित नहीं है, ऐसे उत्कृष्ट अतिथि साधु-साध्वीवर्ग, तथा मध्यम अतिथि व्रतधारी श्रावकवर्ग ) के लिए संविभाग करना---यथोचित आहारादि प्रदान करना 'अतिथिसंविभागव्रत' है ।
जो भिक्षाजीवी साधुसाध्वी हैं, उन्हें प्रसन्नचित्त होकर कल्पनीय, एषणीय, निर्दोष आहार- पानी, औषध-भैषज, वस्त्रादि की भिक्षा देकर लाभ उठाना, इस व्रत का उद्देश्य है । इसी तरह जो श्रावक-श्राविकावर्ग साधुसाध्वियों के दर्शनार्थ या स्वाध्याय आदि के प्रयोजन से आते हैं, वे भी एक प्रकार से मध्यम अतिथि हैं, उनकी भी आहार- पानी आदि से सेवाभक्ति करना इस व्रत के अन्तर्गत है । सुपात्रदान समझ कर श्रावक को चतुविध संघ की यथायोग्य प्रतिपत्ति करनी चाहिए ।
बारहवें अतिथिसंविभागव्रत के पांच अतिचार हैं, जिनसे बचकर इस व्रत की शुद्धरूप से आराधना करनी चाहिए -
(१) सचित निक्षेपण - साधु को न देने की बुद्धि से निर्दोष पदार्थों को सचित्त पदार्थों पर रख देना, प्रथम अतिचार है । ( २) सचित्तपिधान - न देने की नीयत से निर्दोष पदार्थों का सचित्त वस्तु (पानी के लोटे, हरे पत्त े आदि
१ तयानंतरं च णं पोसहोववासस्स समणोवास एणं पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरिश्वा तं जहा - अप्पडिले हिए - दुप्प डिलेहिए सिज्जासंथारे, अप्पमज्जिय-दुप्पम - ज्जिय सिज्जासंथारे, अपडिले हिय दुप्पडिलेहिय उच्चारपासवणभूमि, अप्पमज्जिय दुप्पमज्जिय उच्चारपासंवणभूमि, पोसहोववासस्स सम्म अणणुपालणया ।
—उपासकदशांग अ० १