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२६८ | जैन तत्त्वकलिका : अष्टम कलिका
प्रयोग करना या वैसी चेष्टाएँ करना, जिनसे कामोत्त ेजना पैदा हो । (२) कौत्कुच्य - भाण्ड ( विदूषक) की तरह मुखविकारादि चेष्टाएँ करके लोगों को हंसाना । ( ३ ) मौखर्य धृष्टता के साथ अंटसंट या असम्बद्ध बोलते जाना । (४) संयुक्ताधिकरण -- जिन उपकरणों के संयोग से कलह, हिंसा, युद्ध आदि होने की संभावना हो, उनका संग्रह करना । जैसे - तीर के साथ धनुष, मूसल के साथ ऊखल, फाल के साथ हल आदि संयुक्त उपकरणों का प्रदान करना या परिमाण से अधिक संग्रह करना अतिचार है । (५) उपभोग - परिभोगाइ रित ेअपने शरीर एवं परिवार के उपभोग - परिभोग के लिए आवश्यक वस्तुओं से अधिक संग्रह करना ।
गृहस्थ को अर्थदण्ड तो लगता ही है, किन्तु अनर्थदण्ड से उसे अवश्य बचना चाहिए ।
चार शिक्षाव्रत
शिक्षाव्रत उसे कहते हैं, जिनका बार-बार अभ्यास करने से आत्मजागृति या आत्मविकास होता है । ऐसे शिक्षाव्रत चार हैं - ( १ ) सामायिकव्रत, (२) देशावका शिकव्रत, (३) पौषधोपवासव्रत और ( ४ ) अतिथिसंविभागव्रत ।
(१) सामायिकव्रत
रागद्व ेषरहित होकर प्रत्येक पदार्थ, परिस्थिति आदि में समभाव का अभ्यास करना, अथवा सावद्ययोगों से विरत होकर समत्व का आय - लाभ प्राप्त करना सामायिक है । श्रावक को इस प्रकार के सामायिकव्रत की कमसे कम एक मुहूर्त्त ( ४८ मिनट) तक साधना करनी चाहिए ।
सामायिकव्रताचरण के लिए ४ विशुद्धियाँ आवश्यक हैं
(१) द्रव्यशुद्धि - - सामायिक के उपकरण, शरीर, वस्त्र आदि शुद्ध हों । (२) क्षेत्रशुद्धि -- सामायिक करने का स्थान शान्त, एकान्त, गन्दगी से रहित, शुद्ध और कोलाहल से रहित हो । (३) कालशुद्धि - यद्यपि सामायिकव्रत किसी भी समय किया जा सकता है, किन्तु जिस समय सामायिक में मन लग सके, सांसारिक चिन्ताओं से व्यक्ति निवृत्त हो, ऐसे समय दो हैंप्रातः काल और सायंकाल । इन दोनों समयों में सामायिक साधना करनी चाहिए । (४) भावशुद्धि -- सामायिक हार्दिक शुद्धभावों से बिना किसी फलाकांक्षा, लज्जा, भय या प्रलोभन के की जानी चाहिए । भावशुद्धि के बिना की हुई सामायिक साधना निष्प्रयोजन हो जाती है, आत्मशुद्धिरूप फलप्रद नहीं होती ।