SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 595
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गृहस्थधर्म-स्वरूप | २६७ श्रावक द्वारा कृतसचित्त की मर्यादा का उल्लंघन करना, ( २ ) सचित्तप्रतिबद्धाहार - सचित्त का त्याग होने से सचित्त से प्रतिबद्ध ( छूता हुआ या सचित्त पर रखा हुआ) आहार करना अतिचार है, (३) अपक्वाहार - जो आहारादि अग्नि से परिपक्व नहीं हुए हैं, उनका तथा औषधि (धान्य) आदि मिश्रपदार्थों का आहार करना अतिचार हैं। (४) दुष्पक्वाहार - जो आहार पका तो हो किन्तु दुष्पra अधिक पका दिया या जला दिया हो, उस आहार को करने से उदरादि अनेक रोगों की सम्भावना है । अतः उसका सेवन करना अतिचार है । (५) तुच्छौषधिभक्षण - ऐसी वनस्पति, जिसमें खाने का अंश कम हो, फेंकने IT अधिक हो, जिससे उदरपूर्ति न हो सके, उसका आहार करना अतिचार है । ' (३) अनर्थदण्ड विरमण यह तीसरा गुणव्रत है । यद्यपि हिंसादिजन्य सभी कार्य पापोपार्जन के हेतु हैं । परन्तु उसमें भी सार्थक और अनर्थक ऐसे दो भेद करके जो अनर्थक as ( हिंसादिजनित कार्य) हैं, उनका श्रावक को परित्याग करना चाहिए । शास्त्रकारों ने अनर्थदण्ड के मुख्यतया चार भेद बताए हैं - ( १ ) अपध्यानाचरित - आत्त ध्यान और रौद्रध्यान ये दोनों अपध्यान कहलाते हैं, इसे व्यर्थ ही भावसादि बढ़ते हैं । अतः इन दोनों अपध्यानों का आचरण छोड़ना चाहिए । ( २ ) प्रमादाचरित-धर्म से प्रतिकूल सभी क्रियाएँ जिनसे संसारचक्र में विशेष परिभ्रमण होता हो, उस का नाम प्रमादाचरण है । प्रमादाचरणवृत्ति जब प्रबल होती है, तब शब्द-रूप-रस- गन्ध-स्पर्श विषयों के उपभोग की तीव्र च्छा होती है, और मनुष्य तदनुसार कुपुरुषार्थ करता रहता है । (३) त्रिप्रदान- हिंसाजनक शस्त्र अस्त्र, मूसल, ऊखल आदि प्रदान करना । ( ४ ) पापकर्मोपदेश - चोरी, जारी आदि पापकर्मों के उपाय किसी अन्य को बताना पापकर्मोपदेश अनर्थदण्ड है । इस गुणव्रत की रक्षा के लिए शस्त्रकार ने पांच अतिचारों से बचने का निर्देश किया है- ( १ ) कन्दर्प – कामविकार उत्पन्न करने वाले वाक्यों का 4 १ 'तत्थ भोणओ समणोवास एणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा - सचित्ताहरे, सचित्तपडिबद्धाहारे, अप्पोलिओसहि भक्खणया दुप्पोलिओसहिभक्खणया, तुच्छोसहिभक्खणया । - उपासकदशांग अ० १ २ तयानंतरं च णं अणठ्ठदंडवेरमणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा - कंदप्पे कुक्कुइए मोहरिए संजुत्ता हिगरणे उवभोगपरिभोगाइरिते । - उपासक० अ० १
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy