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गृहस्थधर्म-स्वरूप | २६३ प्रकार के आरम्भ-समारम्भ करे। अतः इस व्रत से मुख्यतया हिंसा और परिग्रह, दोनों पर नियंत्रण रहता है। _इस व्रत के पांच अतिचार हैं जिनसे बचना आवश्यक है
(१) ऊर्ध्वदिशापरिमाणातिक्रम-ऊर्ध्व दिशा में जाने का जो परिमाण किया हो, उसका उल्लंघन करना, (२) अधोदिशापरिमाणातिक्रम-नीची दिशा में जाने का जो परिमाण किया हो उसका अतिक्रम करना; (३) तियंग्दिशाप्रमाणातिक्रम-तिरछी दिशा (पूर्व पश्चिमादि आठों दिशाओं) में जाने का जो परिमाण किया हो, उसका उल्लंघन करना; (४) क्षेत्रवृद्धि-- एक दिशा की सीमा कम करके दूसरी दिशा की सीमा में वृद्धि करना; (५) स्मृति-अन्तर्धान--गमन करते समय उसी दशा की सीमा की स्मृति विस्मृत हो जाए, या सीमा के विषय में शंका हो जाए, फिर भी आगे बढ़ते जाना स्मृत्यन्तर्धान नामक अतिचार है।
इन पाँच दोषों के परिहारपूर्वक इस गुणव्रत का पालन करना चाहिए। . (२) उपभोग-परिभोगपरिमाणवत
यह जीव अनादिकाल से नाना प्रकार के भोगोपभोगों का सेवन करता आया है, फिर भी उसे तृप्ति नहीं हुई। मनुष्यजन्म पाने पर भी भोगोपभोगों की तृष्णा कम नहीं हुई। उसके लिए हिंसा, असत्य, चोरी, परिग्रह आदि पाप करता है। भोगोपभोगों की अतिशय लालसा एवं सेवन के कारण वह रागादि अनेक दोषों एवं अनेक व्याधियों का शिकार बनता है, इससे कर्मसंचय में वृद्धि होती है । श्रावक को अपना जन्म सार्थक करने और विषय-कषायों को कम करने तथा अणुव्रतों का सम्यक् पालन करने के लिए भगवान् ने उपभोग-परिभोगपरिमाण नामक द्वितीय गुणवत बताया है।
___ यह व्रत दो प्रकार से ग्रहण किया जाता है—भोग से, और कर्म से । सर्वप्रथम भोगोपभोगों की मर्यादा का विचार करना चाहिए। जो वस्तु एक बार भोगी जाए, वह भोग; जैसे-आहार-पानी, स्नान, विलेपन, पुष्पमाला आदि और जो वस्तु अनेक बार भोगी जा सके, वह उपभोग; जैसे-वस्त्र, आभूषण, शयन, आसन आदि । इन भोगोपभोग्य वस्तुओं का परिमाण करना-नियमन करना भोगोपभोग परिमाणवत है।
१ 'तयाणंतरं च णं दिसिवयस्स पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहाउड्ढदिसिपमाणाइक्कम्मे, अहोदिसिपमाणाइक्कम्मे, तिरियदिसिपमाणाइयकम्मे, खेत्तवुड्ढी सइअंतरद्धा !'
-उपासकदशांग अ० १