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२६४ | जैन तत्त्वकलिका : अष्टम कलिका
भोगोपभोग्य वस्तुएँ शरीर और शरीर से सम्बन्धित होती हैं | श्रावक को इनकी मर्यादा करते समय निम्नोक्त ५ बातों को वर्जित करना चाहिए(१) स्वधनिष्पन्न - जो वस्तु सजीवों के वध से निष्पन्न हो, उसका कतई उपयोग न करना । जैसे - मांस, मद्य, रेशमी वस्त्र, कॉड लिवर आइल आदि सवधनिष्पन्न दवाइयाँ, अण्डे, मछलो, चमड़ा आदि ।
(२) अतिवधनिष्पन्न -- जिसमें स्थावर जीवों की भी अत्यन्त विराधना होती हो । जैसे—बड़ के फल, पीपल के फल, उदुम्बर ( गुल्लर), अनन्तकाय आदि, इनमें स्थावर जीव अधिक होते हैं तथा सूक्ष्मत्रस जीव भी बहुत उत्पन्न होते हैं । अतः ऐसी चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए ।
(३) प्रमाद - जिसके खाने-पोने से शरीर में आलस्य, जड़ता, बेहोशी, पागलपन आदि आ जाते हों, नित्य धार्मिक कृत्य करने की स्फूर्ति भी न रहे ऐसी चीजों का सेवन भी वर्जित है । जैसे - अत्यन्त गरिष्ठ तामसिक आहार, प्रत्येक प्रकार का मद्य, दुष्पाच्य भोजन, भांग, गांजा, चरस, तम्बाकू, चण्डु नशीली वस्तुएँ आदि आदि ।
(४) अनुपसेव्य - पूर्व आचार्यों ने जिन वस्तुओं का सेवन श्रावक के लिए. निषिद्ध बताया हो । जैसे - लूट - छीनकर या दूसरे का हक छीनकर प्राप्त किया हुआ आहार, वस्त्र आदि अथवा अत्यन्त बारीक, जिससे न तो लज्जानिवारण हो और न सर्दी-गर्मी आदि से रक्षा हो । अथवा ऐसा भोजन, जिससे भूख न मिटे, और केवल स्वाद पोषण होता हो ।
(५) आरोग्यघातक वह भोजन वस्त्रादि जो स्वास्थ्य के लिए घातक हो, रोगोत्पादक हो, उसका सेवन भी वर्जित है ।
उपभोग्य - परिभोग्य पदार्थ - शास्त्रों में २६ प्रकार के उपभोग्य - परिभोग्य पदार्थों की मर्यादा बताई है । ये पदार्थ निम्नोक्त हैं - ( १ ) उल्लणियाविहिप्रातःकाल उठते ही हाथ-मुँह धोने के बाद पोंछने के लिए सूती तौलिये की आवश्यकता होती है, अतः उसकी मर्यादा करना, (२) दंतणविहि-दतीन की मर्यादा करना, (३) फलविहि-आँवला आदि मस्तक पर लगाने के फलों की मर्यादा करना, (४) अभंगणविहि- मालिश किये जाने वाले तेल आदि की मर्यादा करना, (५) उबटणविहि- शरीर पर लगाने के लिए उबटन (पीठी) आदि मर्यादा करना, (६) मज्जणविहि- स्नान आदि के लिए पानी की मर्यादा करना, (७) वत्थ विहि- पहनने के वस्त्रों की मर्यादा करना, (८) विलेवण विहि-चन्दन आदि के विलेपन की मर्यादा करना, (६) पुष्कविहि—– पुष्प, पुष्पमाला आदि की मर्यादा करना, (१०) आभरणविहि- गहने पहनने की मर्यादा करना, (११)